विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिकाओं में कांकड़ के आलेख प्रकाशित होते रहते हैं. एक नज़र..
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‘नोहर समाज’ पत्रिका में ‘शहर जोधपुर’
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जनसत्ता के समांतार कालम में कांकड़
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‘नोहर समाज’ पत्रिका में ‘सपनों का राजमंदिर’
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‘रोचक राजस्थान’ में ‘नादेश्दा का अर्थ उम्मीद’
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‘लोकयात्रा’ में ‘ये जो शहर जोधपुर है’
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त्रैमासिक ‘राष्ट्रीय ज्वाला’ में ‘सपनों के पुराने पते पर खत’
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त्रैमासिक ‘राष्ट्रीय ज्वाला’ में ‘बदतमीज बारिश’
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युवान (दैनिक जागरण) में कांकड़ का आलेख ‘इस शहर की हर रात’
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जनसत्ता के कालम ‘समांतर’ में कांकड़ ..
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जनसत्ता के कालम ‘समांतर’ में कांकड़ का एक आलेख ‘दीवार पर मुस्कुराती धूप’
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‘दबंग दुनिया’ में कांकड़ का एक आलेख ‘नींद से जागती रातें और जूलिया’
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दैनिक हिंदमाता में कांकड़ का एक आलेख ‘मेरा क्रिकेट भी अब सन्यास लेता है राहुल’
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जनसत्ता के कालम ‘समांतर’ में कांकड़ का एक आलेख ‘उड़ने वाले कछुए’
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जनसत्ता के कालम ‘समांतर’ में कांकड़ का एक आलेख ‘थार का इतालवी साधक’ प्रकाशित हुआ है..
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अमर उजाला के कालम ‘ब्लाग कोना’ में कांकड़ के आलेख ‘संकट में जैव विविधता’ के अंश..
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हिंदुस्तान (23-09-09) के कालम ब्लाग चर्चा में कांकड़ का जिक्र …
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कांकड़ पर प्रकाशित आलेख ‘ सरद मुल्कों के सूरज’ के अंश अमर उजाला में प्रकाशित …

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वेबदुनिया हिंदी में रविंद्र व्यास …
होली के रंग में रंगी ब्लाग दुनिया
चारों और होली का उल्लास अब भी बाकी है। खुमारी उतरी नहीं है। न रंग की और न ही भंग की। होली का रंग ही ऐसा होता है। गहरे उतरता है, गहरे चढ़ता है। लेकिन आसानी से छूटता नहीं है। जाहिर है उमंग और तरंग पर सवार होकर यह त्योहार हर रंग में रंग देता है। कहने की जरूरत नहीं कि ब्लॉग दुनिया में इसके रंग में रंगी हुई थी। लिहाजा इस बार ब्लॉग चर्चा में कुछ ब्लॉग पर बिखरें होली के रंगों की छटा देखते हैं, महसूसते हैं।
यहाँ रंग है, भंग है, कार्टून है, ग्रीटिंग हैं और हैं वाल पेपर्स। होली पर प्रेम कविताएँ हैं, परंपराएँ हैं। नशे की लत से विकृत होती परंपराएँ हैं तो उन पर टिप्पणियाँ भी हैं। जरा एक नजर मारिए।
पृथ्वी अपने ब्लॉग कांकड़ पर होली के मौके पर बहुत ही खूबसूरत बात लिखते हैं। वे कहते हैं कि जीवन में रंगों का कोई विकल्प नहीं है। शुक्र है! यह बहुत बड़ी बात है। रंगों का कोई विकल्प नहीं होता। रंग के साथ भंग (भांग) हो तो दुनिया नशीली हो जाती है। नशा रंग का होता है या भांग का, पता नहीं लेकिन यह सच है कि रंग अपने आप में बड़ा नशा है। होली पर धमाल गाने वाले हर किसी ने भंग नहीं पी होती। वे तो रंग रसिया होते हैं। रंगों के रसिया, झूमते हुए। उनके नशे की मादकता के आगे क्या भंग और क्या और. ..
कहने की जरूरत नहीं कि रंग का ही यह नशा है कि लोग पानी की तमाम किल्लतों के बीच होली खेलने से अपने को रोक नहीं पाते। हर कहीं गुलाल उड़ती है, रंग उड़ता है और आपको भीतर तक रंग जाता है। यही कारण है कि लोग इस रंग में अपनों को नहीं भूलते। अपना पहर के ब्लॉगर होली पर अपनी माँ को याद करते हुए कहते हैं कि-फिर बैठक होली के दिन भी माँ ढेर सारे काम हम पर थोप देती। http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0903/12/1090312102_1.htm
बधाई भाई पृथ्वी ! तुम्हारी प्रतिभा को दाद देता हूं. छा गए!
excellent work.thanks and “mhari ghani-ghani shubhkamnawan.
mahendra pratap sharma. artist.
lecturer, nohar
पृथ्वीजी,
बधाई। आप अपने मिशन में लगातार जुटे हैं, इसके लिए फिर बधाई। बस एक बात. आपके ये लेख पढ़ने में नहीं आ रहे। लगता है, अखबार ही पढ़ने पड़ेंगे।
आप से तो मिलकर राजस्थान को देखना एक सौभाग्य होगा।
great one i like respect your eforts
excellent work good