आक्रांताओं विशेषकर मुगल साम्राज्य की आंखों की किरकिरी रहे चित्तौड़ के एतिहासिक दुर्ग के लिए सूरज आज भी पूरब में उगता है और पश्चिम में अस्त हो जाता है। किले के पिछले दरवाजे से आने वाले पर्यटकों के लिए एतिहासिक आख्यानों का सिलसिला विजय स्तंभ से शुरू होकर स्थानीय आदिवासियों द्वारा शरीफे (सीताफल) से बनाई गयी विशेष रजाइयों व दूसरे उत्पादों पर खत्म हो जाता है।
स्थानीय गाइडों के पास पीढ़ी दर पीढ़ी सुने इतिहास का रोचक वृतांत है। इसमें शासकों की शौर्य गाथाएं, एतिहासिक लड़ाइयां व जीते हैं। वे बताते हैं कि किस तरह दो दर्जन से अधिक हमलों को अपने सीने पर सफलतापूर्वक झेलने वाला यह किला केवल तीन, केवल तीन हारों में खंडहर में बदल गया।
“चित्तौड़ में देखने के लिए खंडहर, सुनने के लिए गौरवशाली इतिहास, खाने के लिए शरीफा और ले जाने के लिए (जौहर की) माटी है।“ गाइडों का यह तकिया कलाम दिन में कई बार सुनने को मिल जाता है।
कई एकड़ में फैले देश के इस सबसे बड़े किले के एक बड़े हिस्से में अब शरीफे की खेती होती है। किले के सामने वाले दरवाजे सूरजपोल से नीचे भी शरीफे के पेड़ों का जंगल दिखता है। घोड़ों की टापों और तलवारों की टंकारों से गुंजायमान रहने वाली चित्तौड़ की एतिहासिक रणभूमि में इन दिनों शरीफे के पेड़ हैं। या गेहूं के खेत लहलहा रहे हैं। एक राजमार्ग है जो इस युद्धभूमि को मानों तलवार की तरह काटता हुआ निकल जाता है। उसके पार सोए हुए इंसान की आकृति का एक पहाड़ है। उसके बाद एक कतार में पहाडियां सर झुकाएं बैठी लगती हैं।
उधर किले के भीतर विजय स्तंभ के पास एक पार्कनुमा जौहर क्षेत्र है। इन दिनों पर्यटकों व गाइडों में इसकी चर्चा है। किले के भीतर सबसे बड़ा स्मारक विजय स्तंभ है जो विशाल खंडहरों व बड़े से बड़े विवादों से उंचा अडिग खड़ा नजर आता है।
विवादों के पत्थर से टूटे इतिहास के कांच के कुछ किरचे एक कमरे में बिखरे हैं जिसकी तीन खिड़कियां तलाब में बने रानी महल की ओर खुलती हैं। बस विवादों का यह बोझ परकोटे के भीतर ही अधिक महसूस होता है। परकोटे से दूर होने के साथ ही यह हल्का होता जाता है। किले से नीचे जो शहर चित्तौड़ है उसके रोजानमचे में तो ‘वही मैदान-वही घोड़े’ दर्ज हैं।
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व्याख्याअद्भुत किया है जनाब ।पर अंदर की बात अभी भी बाकी है ।
Bahut hi short me likha hai Par hai asardaar….
🙂 jai ho sa!
अंदर मिथ्या है, भ्रम है। 😛