जिंदगी कभी अपने नोट नहीं बदलती और सफलता के बाजारों में अब भी मेहनत के सिक्के चलते हैं। यारियां खरीदने निकले सौदागर सारी दौलतें लुटाकर खाली हाथ लौटे तो पाया कि मोहब्बत के खजाने की कोई चौकीदारी नहीं करता। नोटबंदी? नहीं, इस सदी का सबसे बड़ा संकट यह है कि ठट्ठाकर हंस सकने वाली रोशन महफिलें और बुक्का फाड़कर रो सकने वाले अंधेरे कोने लगातार कम हुए हैं।
कि मुहब्बत कारोबार नहीं करती और नफरत भरे बाजार बिक जाती है।
वक्त के रोजानमचे में नीली स्याही से यह बयान जाते हुए काती (कार्तिक) ने दर्ज कराया था। शाम को लिखी पंक्तियों को सुबह नहीं पढ़ना चाहिए, कि उनमें ज्यादातर उदासियों की कलम होती हैं। सयानों की इसी बात को मानते हुए मिंगसर (मार्गशीर्ष) ने शायद लागबुक पढ़ने के बजाय सिस्टम पर सिया का नेवर गिव अप सुनना ज्यादा ठीक समझा। उसे यही ज्यादा फायदे का सौदा लगा।
उसने खुद देखा, कि सपनों के खनकते सिक्कों को उम्मीदों की मुट्टी में भरकर घरों से भाग आई एक पीढ़ी दिन में लोगों को क्रेडिट कार्ड बेचती है और रात में उन स्वाइप मशीनों के ख्वाब देखती है जो उसकी कमाई के बदले थोड़े से सुकून की पर्चियां छापेंगी। कहते हैं कि छुट्टियों में घर आए अपने बेटे को नींद में यस सर, नो सर, प्लीज सर बड़बड़ाते सुन गांव की रात रो पड़ी।
कि कौन था जो सपनों के बदले अपनी नींद दांव पर लगा आया।
कि उसके खाते में किन नाशुक्रों ने बेचैनियों का फिक्स डिपाजिट करवा दिया और नवंबर की इन नम सुबहों में मुंह पर स्कार्फ बांध कमरों से निकलने वाली लड़कियां किन कर्जों का ब्याज चुकाती हैं।
दोस्त, कहने को यह बात इस डिस्कलेमर के साथ खत्म की जा सकती है कि इसका किसी वक्त, बेवक्त हुई सच्ची झूठी घटना से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन बताना चाहता हूं कि कई साल बाद जिंदगी में चाय की गर्माहट सर्दियों से पहले लौट आई है। हां बदलाव बस लोटे-बाटी की जगह एक बड़े से मग का होना है। और एक कमबख्त धूप है जो नोटबंदी की परवाह किए बिना इन दिनों बेसमेंट वाले उस टेबल पर आ बैठती है जहां सुबह लॉगइन करती है। कुछ कह भी नहीं सकते क्योंकि सर्दियों के बाजार में आज भी धूप के नोट चलते हैं!
तुम बस इस शनिवार की शाम एमी विर्क को सुनना!
(photo curtsy net)
“गांव की रात रो पड़ी” पढ़कर याद आया। पिछले दिनों दिल्ली से छुट्टियों में घर (मधुबनी,बिहार) आए एक मित्र से उसके गांव में भेंट हुई। इरादा खूब बतियाने का था। मगर हर थोड़ी देर में उसका फोन बज उठता और वो ” यस सर, नो सर, अच्छा सर, हो जाएगा सर” में गुम हो जाता। मैंने पूछा ये कैसी छुट्टी हुई। वो रुआंसा होकर बोला, कमबख्तों ने छुट्टी इसी शर्त पर दी है कि मेरा फोन हमेशा चालू रहना चाहिए।
पिरथी जी,
गांव में लोटा और बाटी छोड शहर में कॉफी का मग थामने वाले छोरे की अपने दिल की साफगोई, गंवई भोलापन और अपनापन शहर की जिंद्रगी की दौड धूप में पीछे ही छूट गई है। अब कथित ताैर पर आधुनिक बने इन शहरियों के हाथों से सुकून की लकीर मिट चुकी है। चेहरे की रंगत को बडी संजीदगी के साथ बेहद बेजोड शब्दों की माला में जाहिर किया।
राम राम सा।
हां सा, बहुत बड़ा संकट है। बंधुआ मजदूरों से भी बुरी हालत हो रही है। यह नये तरह की गुलामी है। 😦
संदीप भाई, कई बार सोचते हैं कि इस तरह के विकास का मतलब क्या है?