जिंदगी के दोस्तों को इस आभासी दुनिया में विदाई देने की अपनी रवायत नहीं है फिर भी इक बात कहूंगा- मील साब के जाने से अपने लिए उस शहर और इस पेशे में रहने की एक वजह और कम हो गई.
वैशाख की इक भरी दुपहरी में जब आप अपनी कामकाजी स्क्रीन पर फसलों पर कहर बरपाती बारिश व ओलों की खबरों से विचलित हो रहे हों कि अचानक अशोक रोड की रेडलाइट पर समाचार मिले कि आपका भाइयों जैसा यार जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है. तो, मन करता है कि सर बायीं ओर खड़े इंडिया गेट की दीवार पर जाकर मारें और चिल्लाएं कि यह अच्छा नहीं हुआ.
इन दिनों जब खेत गेहूं, चने व सरसों की पकी फसलों से भरे हैं इतनी बुरी खबर कहां से और क्यूं आती है; कि ऐसी खबरें तो किसी भी मौसम में नहीं आनी चाहिएं. मील साब नहीं रहे यह सोचकर ही दिल बैठ जाता है. कहते हैं ना कि जिंदगी में हम हर किसी से मोहब्बत नहीं कर सकते. मोहब्बत का रिश्ता तो एकाध से होता है बाकी से तो बस हाय हल्लो होती है. मील साब से यही भाइयों वाली मोहब्बत थी. पिछली गर्मियों की ही तो बात है. बस तक छोड़ने मील साब ही आए थे. पानी की बोतल ली और पैसे देने लगा तो डपट दिया- छोटो भाई ह, इसा काम ना करे कर.
यही बात किसी रामप्रकाश मील को मील साब बनाती रही. उन्होंने अपने हिस्से के आसमान की लड़ाई के लिए घरों से भाग आए हम जैसे कितने लड़कों को छोटा भाई बना अपने दिल और घर में जगह दी. उन्हें आगे बढाया और कभी इस बात की बड़ाई नहीं ली. अपनी व्यक्तिगत जिंदगी की लड़ाइयों के बीच वह हमेशा उन लोगों की जायज लड़ाइयों के लिए तैयार रहे जिनका उनसे कोई ‘रिश्ता’ नहीं था.
एक खांटी पत्रकार होने से पहले एक खांटी इंसान. जमीन से जुड़े लेकिन आसमान जितनी खुली सोच वाले. इधर का अनुभव यही कहता है कि अच्छा पत्रकार अच्छा इंसान नहीं होता और अच्छा इंसान इक अदद अच्छा पत्रकार नहीं बन पाता. मील साब इसके चुनींदा अपवादों में से एक थे. मेरे लिए वह हमेशा मानवीय चेहरे वाली पत्रकारिता का प्रतीक रहे. इस शहर का पत्रकारिता में भले ही कोई बड़ा नाम नहीं हो लेकिन वहां से कई अद्भुत पत्रकार निकले जिनमें मील साब शामिल हैं.
खबरों की समझ, मुद्दों पर पकड़ और एक व्यापक सुलझी सोच उन्हें कई कतारों से अलग करती गई. दरअसल मील साब उन ‘गिने चुने’ पत्रकारों में से एक रहे जो पत्रकारिता में ‘पेशे’ के लिए नहीं बल्कि ‘पैशन’ की वजह से आए थे. जिन्होंने पत्रकारिता में अपने कमाल को लगन व दिनरात की मेहनत से निखारा. जिनकी पत्रकारिता में निष्ठा थी. शायद यही कारण है कि जनसरोकारों से जुड़े किसी भी मुद्दे पर बेबाक रिपोर्टिंग करने से चूके नहीं. फिर मुद्दा चाहे किसी प्रशासनिक अधिकारी या व्यक्ति विशेष के खिलाफ रहा हो या किसी समाज के वंचित तबके या संघर्षरत किसान का रहा हो.
मील साब इस इलाके के उन गिने चुने पत्रकारों में थे जिनके साथ क्षेत्र की छोटी छोटी और दुनिया जहान की बड़ी घटनाओं पर घंटों चर्चा की जा सकती थी. आज उनके बारे में यह सब लिखना बहुत तकनीकी सी बातें लगती हैं. क्योंकि पत्रकारिता और जीवन के प्रति उनकी जीवटता मेरे लिए गूंगे के गुड़ सा है जिसे चाहकर भी बयान नहीं किया जा सकता. उनसे मिलकर हमेशा सोचता था कि कोई कैसे अपने पेशे से निष्ठा रखते हुए निजी जिंदगी की चुनौतियों को इतनी शिद्दत से टक्कर दे सकता है और मील साब ने मेरे लिए हमेशा यह साबित किया कि-
मील का पत्थर, पत्थर बन जमीन पर गड़ जाना भर नहीं होता,
बल्कि इक जिंदा रूह का माटी होना होता है.
और आज वह जिंदा रूह माटी होकर मील का पत्थर बन गई है. [गंगानगर के खांटी पत्रकार रामप्रकाश मील के निधन पर एक आलेख राजेश सिन्हा ने यहां लिखा है.]
RIP…मील का पत्थर, पत्थर बन जमीन पर गड़ जाना भर नहीं होता,
बल्कि इक जिंदा रूह का माटी होना होता है…MALIK UNKI AATMA KO SHANTI DE AUR PARIWAAR KO SABR…..
मई 2002 में श्रीगंगानगर में दैनिक सीमा संदेश से पत्रकारिता कॅरियर की शुरूआत के थोड़े समय बाद लालगढ़ छावनी में सेना एक कार्यक्रम में रामप्रकाश जी मील से पहली भेंट हुई। इसके बाद प्रताप केसरी, दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण तक का सफर तय किया। मील साहब से निरंतर संपर्क बना रहा। रामप्रकाश जी शरीर से बेशक दुबले पतले थे लेकिन उनकी सोच विशाल थी। नौसिखिए पत्रकारों को गाइड करना। हर तरह से मदद करना उनका स्वभाव था। भगवान उन्हें बेशक दुनिया ले गए, लेकिन लोगों के दिलों से नहीं निकाल सकेंगे।
बिलकुल सा, दिल से नहीं निकाल सकेंगे.