तपते जेठ में जब हवाएं अपना घर लू को संभलवाकर बारिशों को लेने चली गई हों और सूरज ने मौसमों की सारी नमी पीकर डकार ली हो, उस समय उमस रात के सिर पर चढ़कर सांबा करती है. गोया सावन से हमारी मुहब्बत उसे सौतिया डाह बन डसती है. सात घंटे देर से चल रही हमारी ट्रेन उस स्टेशन पर चढते दिन के साथ पहुंचती है जिसे उसे रात के अंधेरों में ही लांघ जाना था. बाहर निकल कर देखता हूं कि संगरिया है.
गाड़ी हनुमानगढ़ की ओर बढ़ रही है. बायीं ओर कस्बा बसा है. आबादी और पटरियों के बीच एक सड़क है और उसी सड़क पर ग्रामोत्थान विदयापीठ का दरवाजा है. विद्यापीठ की चारदीवारी के पास एक अमलतास झक पीले रंग के फूलों के साथ मुस्कुराकर मानों गाड़ी से कह रहा था—अपनी लेटलतीफी से बाज नहीं आओगी! खैर, इस विद्यापीठ से अपनी पुरानी नाड़ बंधी है. बाबा की पढाई यहीं हुई थी. उनके दस्तावेजों, बातों में कई बार इसे जीते हुए देखा है. दरअसल यह कोई छोटा मोटा आम स्कूल नहीं यह एक शिक्षा आंदोनल का एक प्रमुख केंद्र है जिसकी धमक उत्तरी पश्चिम राजस्थान, उससे चिपते हरियाणा व पंजाब तक सुनाई दी गई थी. वह आंदोलन खड़ा किया था किशोरावस्था में ही अनाथ हो गए तथा आर्य अनाथालय में पले पढे एक युवक ने जो बाद में स्वामी केशवानंद के रूप श्रद्धेय हुआ.
हद दर्जे तक खुदखर्ज होते जा रहे इस जमाने में यह यह जानना ही कितना सुकून देता है कि पारिवारिक और आर्थिक संकट के कारण औपचारिक शिक्षा तक नहीं ले पाए एक व्यक्ति (साधु) ने देश का अपनी तरह का सबसे बड़ा शिक्षा आंदोलन खड़ा कर दिया. उन्होंने जन सहयोग से सैंकड़ो स्कूल, छात्रावास और पुस्तकालय खोले जो आज भी अपनी साख को बनाए रखते हुए काम कर रहे हैं.राजस्थान के इस कस्बे संगरिया की पहचान आज भी ग्रामोत्थान विद्यापीठ से है तो इसमें गलत क्या है. थार की तपती लू और उम्मीदों को उड़ा देने वाली आंधियों में अपने मां बाप को खो चुका एक किशोर आगे चलकर संत स्वामी केश्ावानंद के नाम से जाना पहचाना गया. एक ऐसा समाज जिसे राजे रजवाड़ों की बंदिशों की आदत हो गई थी, जहां वंचितों में भी वंचितों व पिछड़ों को और दबाए रखने के सारे प्रयास किए जाते थे वहां के घने अंधेरों और जड़ताओं के खिलाफ स्वामी केशवानंद ने शिक्षा की मशाल को अपना अचूक हथियार बनाया. जात पूछकर पानी पिलाने वाले दौर में उन्होंने लिंग,जाति का भेदभाव किए बिना सभी के लिए समान अवसर वाले शिक्षा अवसर वाले शिक्षण संस्थान खोले.
इस इलाके ही नहीं देश भर में भी शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह का अनूठा योगदान करने वाले कितने हैं?
किसी सयाने ने कहा था कि अगर हम एक विद्यालय खोलते हैं तो सौ कैदखानों की राह बंद कर देते हैं. इस कसौटी पर स्वामी केशवानंद के काम के फलक का विस्तार आंकना आसान नहीं होगा. अपनी ईएमआई और छोटी छोटी जरूरतों में फंसे हम बस कल्पना ही कर सकते हैं. कई मित्र इस कस्बे में रहते हैं सोचता हूं अगली बार इसी स्टेशन पर उतर जाउंगा कुछ दिनों के लिए.आखिर थार के कितने गांवों में यूं अमलतास खिलता है, ज्यूं वह संगरिया में इन दिनों खिला है?
घर की लीपी दीवारों को छूकर खुश हो जाते हैं
मां के अरमानों को यूं समझते हैं गांव के बच्चे.
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स्वामी केशवानंद चैरिटेबल स्मृति ट्रस्ट, अमलतास का फोटो साभार राजेश एकनाथ
इसी ग्रामोत्थान विदयापीठ में मैंने भी पढ़ाई की है लेकिन अब जब जाता हूँ तो ये देख् कर बहुत दुःख होता है कि स्वामी जी के लगाए अधिकांश पेड़ अब वहाँ नही है! और जिस आम से दिखने वाले संत ने इस स्कूल को इस मुकाम तक पहुँचाया उन्हें मात्र एक दिन याद करके भूला दिया जाता है !स्वामी केशवानंद जी संसद तक जा पहुँचे थे! आज उनकी उपेक्षा देख कर दिल भर आता है….
@rajnish- बिलकुल साब, जमाने के साथ साथ हमारे मूल्य व प्राथमिकताएं भी बदल गई हैं.
धन्यवाद| मेरी जन्मभूमि और ननिहाल को मुझे अलग तरह देखने का अवसर मिला|