अब्बू कहते थे कि गणित दुनिया की कुंजी है. मैंने गणित पढ़ी. जब इंजीनियर हो गया तब मालूम हुआ कि दुनिया में इंजीनियरों के काम के लिए जगह ही नहीं बची. सारी दुनिया में इतना कुछ बनाया जा चुका है कि खाली जगह ही नहीं है. इसलिए मैंने आगे व्यापार पढ़ा. अब क्लाइंट पटाओ का कारोबार करता हूं. तुम्हारी तरह सिनेमा, कहानी, कविता, मोर्चा कुछ आता नहीं है…
एक दोस्त की कहानियों की पांडुलिपि पढ़ते हुए अचानक देखा कि उसने अपना छाता खुला छोड़ दिया है. रात घर घर खेलते हुए सो गई और छाता अब भी जाग रहा है. छोटा सा बहुरंगी छाता जिसमें चार पांच रंग तो हैं ही. लाल, पीला, नीला, हरा या तोतिया. तोतिया? अगर वह पास बैठी हो तो अकबकाकर कहेगी तोतिया? यह लाइट ग्रीन है. जब बच्चे आपको करेक्ट करने लगें तो बदलता समय आपके सामने खम ठोककर खड़ा हो जाता है. और मिसफिट होने का डर आंखों में लहराता है.
लाल, पीले व नीले जैसे मूल रंगों के अलावा संतरी, बैंगनी, मूंगिया, नसवारी, तोतिया, कत्थई और स्लेटी जैसे अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले रंगों की हमारी दुनिया अब करोड़ों रंगों तक फैल चुकी है. सयाने लोगों का कहना है कि हम किसी प्रयोगशाला में एक ही स्थिति में लगभग एक करोड़ रंग देख सकते हैं. हमारा कंप्यूटर किसी एक फोटो को दिखाने के लिए डेढ़ करोड़ से ज्यादा रंगों का इस्तेमाल करता है. तो, फोटो में रंगों के जो चेहरे हमें दिखते हैं उनके पीछे हजारों रंगों के चेहरे होते हैं.
थार की रेत में बना रंगों का अपना हिसाब किताब पुराना हो गया है. डर यह नहीं कि अपने गेंहुए, जामुनी व सुरमई रंगों को किसी दूसरी भाषा में पहचाना जाने लगा है. दुनियादारी के हिसाब से रंगों की पहचान नहीं कर पाना चिंता की बात है. दादी कहा करती थी कि उधार के घी से चूरमा नहीं बनता! पर कुछ लोग उधार पर लिए चावों से जिंदगी में रंग भर लेते हैं. रेत के समंदर में पानी की नदियां नहीं होती फिर भी लोग छोटी छोटी बारिशों में जी भर कर नहा लेते हैं. खुद को दुनियादारी में फिट रखने की कोशिशें यूं ही चलती रहती हैं. दिसंबर चढ़ रहा है. एक ढलती शाम ने मुस्कुराकर पूछा- ये लंबी रातें तो इसी महीने भर की.. बाद के लंबे दिनों के लिए क्या प्लान है?
प्लान? एक दोस्त ने बनाया है कि दोस्तों, अपरिचितों के यहां जाकर उनके घर के किसी कोने में रंग किया जाएगा. सिर्फ मूल रंगों को हमारे जीवन में वापस लाने की एक कोशिश के रूप में. यानी किसी भी रूप या भाषा या रूप में हों रंग हमारे जीवन में बने रहें क्योंकि (मधुकर उपाध्याय के शब्दों में) लकीरें खींचना, जिंदगी को आजमाने का पुराना तरीका हो गया है. जिंदगी में रंग बने रहें, साल दर साल इससे बड़ा प्लान क्या होगा?
फातिमा हसन ने लिखा है-
बिखर रहे थे हर सम्त काएनात के रंग
मगर ये आंख कि जो ढूंढती थी जात के रंग
हवा चलेगी तो ख़ुशबू मिरी भी फैलेगी
मैं छोड़ आई हूं पेड़ों पे अपनी बात के रंग.
[पहला पैरा किशोर चौधरी की नयी कहानी से. अपने पहले कहानी संग्रह से चमत्कृत कर देने वाले किशोर का दूसरा कहानी संग्रह आ रहा है. सुशील झा के प्रोजेक्ट के बारे में यहां पढ़ें. फोटो साभार पूजा गर्ग सिंह]
blog ya kain kevan ine,kul milar ‘kankad’ same ave jad ire sathe ee dhora,baanth-bojha ar saari maru dharti hi nizran re sami aa jave.kin kevno ar kin likhno sujhe hi koni.bahut bahut dhin h thane.