उसने यह कायदा सीखा था कि क से कबूतर, च से चरखा, ठ से ठठेरा, फ से फल व ज से जल होता है और गाया कि मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है. आंखों के तल में उसी नमी को लेकर जब वह शहर आया तो बताया गया कि क से कमाई, ब से बाज़ार, म से मॉल, ड से डर होता है. यहां भ से भेड़ नहीं भेड़चाल और ब से बकरी नहीं बकरा होता है. और बकरे की मां ज्यादा दिन खैर नहीं मना सकती. उसने बकरियां चराने और बकरा बनने के विकल्प के रूप में जो चुना वह था बांस. ब से बांस! इस देश, समाज और भाषा के लिए अद्भुत शब्द है बांस, जिसे गाहे बगाहे किसी के भी किया जा सकता है.
बांस की महत्ता जानकर ही उसके ज्ञानचक्षु खुले कि कैसे अपने कायदे में ब से बकरी पढने वाली पीढियां जीवन की दौड़ में भेड़ें बनकर रह गईं. बाहर से लोग आए और उनके बांस पर बांस करते रहे. उसे लगा कि उन्हें जीवन के कायदे में ब से बांस और भ से भचीड़ (टक्कर) सिखाया गया होता तो आज शायद हमारे हालात अलग होते. जब उसने इस दिशा में शोध किया तो पाया कि बांस का एतिहासिक, राजनीतिक व धार्मिक महत्व किसी भी सीमा और काल से परे है. इसके जलवे बरेली (उल्टे बांस बरेली को) से लेकर रोम तक रहे हैं क्योंकि जब रोम जल रहा था तो नीरो ने जिसे बजाया वह किसी चैन वैन की बंसी नहीं बांस की ही छोटी बहन थी.
बंदे को शोध में पता लगा कि कुछ बात तो है तो वरना लोग यूं ही नहीं हरदम दूसरों के बांस किए रहते. बांस जैसा लंबा हमारा सदी का महानायक बंबू में तंबू लगा लेता है और काल सुकाल के बारे में मौसम विभाग से अच्छी भविष्यवाणी तो हमारे कनकूतक बांस के सफेद फूल देखकर कर देते हैं. बांस की फांस अगर नाखून और अंगुली के बीच चली जाये तो नानी की नानी भी याद आ जाती है. गधे के सींग की तरह गायब हुए लोगों को ढूंढने के लिए कुओं में बांस डलवाये जाते हैं. हाल ही में खबरें आईं कि पंजाब के एक सांसद के गायब होने पर मतदाताओं ने उन्हें ढूंढने के लिए कुओं में बांस डलवा दिए. सांसद हैं कि हर शनिवार रविवार एक कामेडी शो में लोगों के बांस किए हंसते रहते हैं. गुरु, जहां बांस डूब जायें वहां पोरियों की क्या गिनती? ठोको ताली!
वह जब अपने इस मगजमारी में और गहराई में गया तो उसका वास्ता फच्चर व खपची जैसे बांस के उत्पादों या बाइप्राडक्ट से भी पड़ा. फच्चर तो फच्चर है जो काम बनाने से लेकर बिगाडने तक हर काम आती है. अगर चारपाई की सैटिंग सही नहीं हो तो खपची फंसाकर ठीक की जा सकती है. खपची का मामला कुछ कुछ स्टैपनी जैसा है. वहीं अगर चारपाई की सिमेटरी बिगाड़नी हो तो फच्चर निकाली जा सकती है.
वह बांस से मिला तो उन्होंने आरोप लगाया कि भारत जैसे विकासशील देशों में बांस के वनों की तबाही के पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा सरकार का हाथ है. सरकार को पता है कि मात्रात्मक व गुणात्मक लिहाज से सबसे बढिया लाठी बांस की होती है. और जिसकी लाठी उसकी भैंस! तो यह लाठी यानी बांस अगर आम लोगों के हाथ में चला गया तो उसके पास न तो भैंस रहेगी और न ही व लोगों को बकरा बना सकेगी. तो उसने वन अधिकार कानून के जरिये बांस को माइनर फॉरेस्ट प्राडक्ट की श्रेणी में डाल दिया और राष्ट्रीय बांस मिशन का कोई नामलेवा नहीं बचा है. इस मामले में किसानों के सबसे अधिक बांस तो सरकार ने कर रखा है. वह अभी तक यही तय नहीं कर पाई कि बांस है क्या.. घास या लकड़ी? भारतीय वन अधिनियम बांस को लकड़ी मानता है, जिसके कारण इस पर वन विभाग का अधिकार है. यानी बांस को बांस की खेती करने वाले भी बिना इजाजत के नहीं काट सकते. उनका कहना है कि टांगें तोड़ने से लेकर टूटी हड्डियां जोड़ने तक बेंत और खपची के रूप में बांस काम आता है. फिर सब्जी से लेकर खूंटी और खूंटे से लेकर अर्थी तक.. जीवन के हर मोड़ पर साथ निभाने वाले बांस को राष्ट्रीय फल, फूल, घास या राष्ट्रीय हथियार जैसा क्यूं दर्जा क्यूं नहीं दिया गया इसकी जांच संयुक्त राष्ट्र जैसी किसी तटस्थ संस्था से कराई जानी चाहिए. काश राष्ट्रीय बांस म्यूजियम, राष्ट्रीय बांस सड़क हो. एक बांस संस्थान हो जहां लोगों को दूसरों के बांस करने की विधियां बताई सिखाई जाएं. बांस ओलंपिक हो. ऐसा कुछ हो जिससे लगे कि कुछ बांस किया जा रहा है.
बाबा नागार्जुन ने बांस की दुर्दशा को अपनी कविता “सच न बोलना’ में व्यक्त किया था. लगता है कि यह बांस नहीं एक समाज की दुर्दशा की बयानी है जहां समान स्तर वाले एक दूसरे के तथा बाकी बचे खुचे हाशिए वालों के बांस किए हुए है. आप कविता पढिए..
मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को.
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा.
बास के बांस करने के काम भी आता है बांस
बहुत खूब….
शानदार लेखन शैली