देश में शिक्षा प्रणाली को देखने वाले मानव संसाधन मंत्रालय को अगले वित्त वर्ष (2013-14) के लिए 65,867 करोड़ रुपये का बजट देने का प्रस्ताव है. दुनिया के 200 शीर्ष शैक्षणिक संस्थाओं में हमारा एक भी विश्वविद्यालय नहीं है और दिल्ली व चेन्नई जैसे महानगरों में नर्सरी जैसी कक्षाओं में प्रवेश के लिए लाखों रुपये का डोनेशन दिया जाता है.
दायीं ओर एक एक कर चार कुर्सियां लगी हैं. …नहीं बायीं ओर. सड़क पर चलने का जो नियम बचपन में सिखाया गया था उसके हिसाब से कुर्सियां बायीं ओर थीं. अपना दिशा भ्रम से बचने के लिए यही अचूक हथकंडा है. कहते हैं कि हर दिमाग दो अलग अलग तरह से काम करता है. कुछ लोग आंकड़ेबाजी में माहिर होते हैं तो बाकी तस्वीरों व नक्शों में. अपन दोनों ही मामलों में ब्लैंक से हैं. बायें दायें से लेफ्ट राइट का मामला जल्द समझ में आ जाता है.
खैर मुद्दा न तो दफ्तर में रखीं कुर्सियां थीं न उनके सामने आंख मीचे बैठी कंप्यूटर स्क्रीनें. मुद्दा क्रीम रंग कर वह टेलीफोन था जो कुर्सियों के सामने टेबल पर रखा था और बीच बीच में बजकर कुर्सियों की उंघ तोड़ देता और फिर मानों इधर उधर देखकर मुस्काराता. होना तो यह था कि फोन उठाकर नंबर डायल करता और बेटी के एडमिशन के लिए सिफारिश का जुगाड़ करता. ठीक यही करना था. यही मुद्दा था. लेकिन सोच सोच कर सोच के हालात खराब थे.
आपकी पार्टनर जब हर शाम को यह बताए कि किन किन बच्चों के एडमिशन कहां हो गए हैं, कितनी डोनेशन दी किसकी सिफारिश से हुआ है और आप यूं ही बड़बूजे खोद रहे हैं तो दिल्ली वाली यह चोट सीधे दिल पर लगती है. तब पता चलता है कि मूल्यों की जिस खेती को आप पाले हुए हैं उसके यहां अकालों का लंबा इतिहास है और पड़ोसी भ्रष्ट आचरण की खाद से लहलहाती फसलें ले रहे हैं. देखिए एसोचैम का सर्वे कहता है कि दिल्ली में नर्सरी में दाखिले के लिए आठ लाख रुपये तक की रिश्वत (डोनेशन) ली जा रही है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर में नर्सरी व केजी में पढाई दिल्ली विश्वविद्यालय में पढने से भी महंगी है. तो सरकार संसद में स्वीकार करती है कि सीबीएसई को केरल से लेकर पंजाब और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक स्कूलों द्वारा कैपिटेशन फीस मांगने की शिकायतें मिली हैं. निजी स्कूलों में दाखिले के अपने अपने नियम व कायदे हैं. कहीं कोई पारदर्शिता नहीं.
दो साल की मशक्कत के बाद भी अगर आप अपनी बेटी का एक ढंग के स्कूल में एडमिशन नहीं करवा पायें तो निराशा कचोटती है. सवाल यह नहीं कि आप मूल्यों के पक्षधर हैं. बड़ी बात यह है कि सिस्टम चाहता है कि आप भ्रष्ट हों इसके अलावा आपके पास कोई चारा नहीं है. यह हमारी विकल्पहीन होती दुनिया है. जब बच्चा इसी भ्रष्ट सिस्टम से अपना करियर शुरू करता है तो आप कैसे उम्मीद रखेंगे कि वह वहां से एक ईमानदार नागरिक या कर्तव्यनिष्ठ अफसर बनकर निकलेगा?
यह विडंबना अपने जैसे कई पिताओं की है. खासकर सरकारी स्कूलों से किसी तरह पढ़ लिखकर दिल्ली, चेन्नई व बंबई जैसे महानगरों में आ फंसे युवाओं की. विडंबना है कि जिस शिक्षा को सर्वसुलभ और सस्ती होते जाना था वह महंगी और महंगी तथा आम लोगों की पहुंच से दूर होती गई. अपन ने कालेज तक की लगभग सारी पढाई सरकारी स्कूलों व कालेजों में पूरी की और फीस देने की कोई घटना याद नहीं है. किताबें भी पहले कक्षा पास कर गये छात्रों से मिल जाती थी. फैकल्टी के लिहाज से सरकारी स्कूलों का कोई मुकाबला नहीं रहा है. बीते एक दशक में जब से शिक्षा में बाजार घुसा है सब सत्यानाश हो गया. फीसें बढती गईं और गुणवत्ता में गिरावट आई. उलटा हुआ!
तुर्रा यह कि दुनिया के 200 शीर्ष शैक्षणिक संस्थाओं में हमारा एक भी विश्वविद्यालय नहीं है. पिछले साल एक अध्ययन में कहा गया कि एमबीए जैसे कोर्स करने वाले 21 प्रतिशत छात्र ही नौकरी पाने के काबिल हैं. यानी 100 में से केवल 21 एमबीए ही नौकरी पर रखने जाने की योग्यता रखते हैं. मेट्रो क्रांति के अगुवा ई. श्रीधरन के अनुसार सिर्फ 12 फीसद इंजीनियरिंग छात्र ही नौकरी के लायक हैं. इन आंकड़ों के बीच अगर अपनी बेटी का पहली पक्की में दाखिला नहीं करवा पायें तो आप रोएं भले ही नहीं, उदास तो होंगे ही. अपने पास अगर सिफारिश कर सकने वाले नंबर हैं तो उन्हें डायल करने लायक भ्रष्ट भी हो जाएंगे. आप अपनी सोच लेना!
जमीर जाफरी साब ने कहीं कहा था-
जिससे घर ही चले न मुल्क चले
ऐसी तालीम क्या करे कोई.
VERY GOOD
अफ़सोस, परिस्थितियों पर