मानसून की लौटती बारिश में नहाई धूप ने मौसमों का जो डियो लगाया है उसमें दशहरे की खूश्बू आती है. दिन दीवाली से नीम नीम, शहद शहद हैं. आंख बंद कर हवाओं से लिपटता हूं तो बता देती हैं कि रोशनियों के दिये किसी ने जला रखे हैं. हर साल में कहां दो महीने होते हैं. यह दूसरा भादो है और उतर रहा है. पिछली बालकनी से झांक रहा चांद शायद थक कर सो गया है और सामने की बालकनी से दूर पूर्व में रोशनी दरवाजे दरवाजे खोल रही है.
सुबह के चारेक बजे होंगे. प्यास के साथ नींद तड़क कर टूट जाती है. जमीन पर सोना अब भी अच्छा लगता है. संडे को स्कूल नहीं जाने की निश्चिंतता उसके चेहरे पर देखी जा सकती है जो कल खांसी जुकाम में भी छुप छुप कर ‘कोल्ड ड्रिंक’ पी रही थी. शरारती बंदर.. कहकर खेस उसके ऊपर कर देता हूं. कूलर बंद करने के दिन अभी नहीं आये हैं. निराश होने के सौ (बे)कारणों के बीच खुश होने के कतरा कतरा क्षण हमारे जीवन में मौसम ले आता है, इससे अच्छा क्या होगा!
रात सोते सोते पढ़ा था कि ‘बर्फी’ को आस्कर के लिए भेजा जा रहा है. विदेशी फिल्म की श्रेणी में. सिस्टम पर बैठते ही उसका ख्याल हो आता है… इधर की तमाम ओढी गई व्यस्तताओं के बावजूद पिछले दिनों यह फिल्म देखी.. गंगाजल, हासिल, चकदे इंडिया और अब बर्फी. बीते दस साल में यह चौथी बालीवुड फिल्म हैं जिसे सिनेमा हाल में जाकर देखा. पूरे परिवार के साथ पहली. अच्छी फिल्म, शायद नहीं..प्यारी फिल्म. लाइफ इन मेट्रो इससे अलग टेस्ट की अच्छी फिल्म थी. अनुराग बसु के लिए दिल में तभी से दिल में जगह है जो बर्फी से और पक्की हो गई.
फिर भी आस्कर के लिए इसे भेजा जाना.. जमा नहीं. अनुराग (बसु) भाई माफ करना. प्यारी व अच्छी फिल्म होना और शानदार, श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ फिल्म होना अपनी नज़र में अलग अलग मामला है. (नहीं पता कि) सुप्रान सेन ने किन बाकी 19 फिल्मों में से छांटकर इसे निकाला है. निसंदेह यह उनमें से बेहतर होगी लेकिन इतना तय लगता है कि या तो सेन साहब आस्कर वाली फिल्में नहीं देखते या उनकी सोच हमारे यहां रिकार्ड बनाने वाले तीरंदाजों सी है जो राष्ट्रीय रिकार्ड पर रिकार्ड बनाने के बावजूद ओलंपिक में क्वालीफाइ तक नहीं कर पाते. दौड़ अगर कुएं की है तो ठीक है.. लेकिन पार अगर समंदर करना है तो भाई उस स्तर का प्रदर्शन और स्टेमिना भी चाहिए.
इधर दो फिल्में बार बार दिमाग में आ रही हैं. बहमन घोबादी की टर्टल केन फ्लाई (Turtles Can Fly) और अपने ऋतुपर्णा घोष की ‘रेनकोट’. टर्टल तो खैर अलग थीम की अलग ऊंचाई वाली फिल्म है. रेनकोट से तुलना करें तो भी बर्फी.. की मिठास फीकी लगती है. तो अनुराग भाई यू जस्ट कीप इट अप.. डोंट गेट अवे विद दिस नामिनेशन. अपना तो यही मानना है कि फिल्म ऐसी होनी चाहिए जो खुद बोले, उसे किसी विज्ञापन या शोशेबाजी की जरूरत नहीं हो (film that speaks for itself; no advertising needed).
रोशनी ने दरवाजा पूरा खोल दिया है. चाय पीने का मन हो रहा है. उठकर किचन में आ जाता हूं.
(फोटो फिल्म बर्फी से एक स्टिल साभार)
आप लिखते हो या बारिश से भीगते हुए मौषम की खुशबु से हमें लबरेज कर देते हो सर…
बर्फी.. मुझे भी मजेदार और प्यारी फिल्म लगी… लेकिन आस्कर में भेजा जाना उसका मुझे भी नहीं जमा..
बाकी रेनकोट से मुझे लगता है .. बर्फी लोगों को ज्यादे पसंद आई क्यों की.. रेनकोट ट्रेजडी की फिल्म है वहीं बर्फी के जरिये ज़िन्दगी में नई खुशबुओं और मदहोश हाओं का झोका आता है..
अंजुले भाई..रेनकोट में भी वैसी टे़जडी नहीं है और बर्फी से कहीं अधिक सधी और संपादित है. रवानगी है. जय हो.
sach hai ki maun apne aap mein bahut kuchh kah deta hai kyonki wo daba nahin hota shabdon ke bojh se. is najriye se dekha jaye to BARFI ek achchhi aur masoom film hai parantu oscar ke liye use khud bolna chahiye, Basu bhai abhi bahut door ho. 100% sahamat hoon Prithvi bhai.
क्या कहें सब कुछ तो आपने कह दिया…. अब आप बोल रहे हैं तो बोलना पड़ेगा. पता नहीं मुझे क्यों लगा कि आप भटक रहे हैं. जिन सुन्दर मनोहारी शब्दों के साथ आप आगे बढे थे, उनके साथ आगे न्याय नहीं कर पाए. कोई बात नहीं ऐसा होता है…. ये मिठास होती ही ऐसी है.
जी, भटकाव व फिसलन तो जीवन का हिस्सा है, संतुलन सधते सधते सधता है. कोशिश जारी रहेगी 🙂