कभी दरवाजों-खिड़कियों से शरमाकर, लुक लुकाकर आने वाली धूप आजकल आसमान से सीधे हमारे आंगन में उतरती है. कमबख्त के दुपट्टे से थार की आंधियां लिपटी रहती हैं और मुस्कुराकर दीवारों से कहती है-अभी तो वैशाख है, जेठ (ज्येष्ठ) में क्या करोगे? खैर, आपको धूप मुबारक!
चौथे माले पर अभी अपना जो घर है उसमें धूप दरवाजे या खिड़की से नहीं आती, वह तो पिछली बालकनी की दीवार पर पहला कदम रखती है. उसके बाद उसके हस्ताक्षर रसोई में होते हैं और दोपहर तक सोने वाले कमरे में धींगा मुश्ती कर रही होती है. कुछ साल से गर्मियों में ऐसा ही हो रहा है. लेकिन वह दीवार पर बैठकर हमारी तरफ देखकर मुस्कुराती है, यह अभी कुछ दिन पहले ही जान पड़ा. जैसे कि तीन साल की होने जा रही उर्वी का दिन अभी तो धूप से ही शुरू होता है. उठते ही पहला सवाल- धूप आ गई क्या? अगर पहले उठेगी तो कहेगी-उठो धूप आ गई. धूप आ गई मतलब दिन शुरू. उठना है, चाय पीनी है. घूमना है. हंसना है रोना है. वही एक दिन उठी और दीवार की तरफ देखकर मुस्कराने लगी. पूछा क्या हुआ तो दीवार की तरफ देखकर बोली- धूप ‘श्माइल’ कर रही है.
सच में धूप दीवार पर बैठी हमारी तरफ मुस्कुरा रही थी.
थार में जन्म हुआ, वहीं पले बढ़े. इस सहरा को प्रकृति ने अनेक अद्भुत रूप दिए हैं. इनमें से दो हैं-तपती दुपहरिया औंर चांदनी रातें! थार की तपती दुपहरियां. लू आंधियां, जीवन- मृत्यु की आंख मिचौली सा खेल. रेत और गर्म रेत. बचपन में जेठ आषाढ में नहर में नहाने चले जाते. चप्पलों के बिना भरी दुपहरी में लौटना अंगारों पर नंगे पांव चलने से कम नहीं होता. तो दौड़ होती एक छाया से दूसरी छाया तक. एक पेड़ से अगले पेड़ तक. एक दीवार से अगली दीवार तक. ढलती दुपहर में दीवारों के पास उतरी वह थोड़ी बहुत छाया भले ही तपती बालू के दिए आइंठनों को नरम नहीं कर पाती लेकिन अगले दिन फिर जाने का हौसला जरूर दे देती.
इसीलिए थार के आदमी की एक नाड़ धूप से बंध जाती है. अकाल, पानी की कमी सब सहन कर लेगा, लेकिन धूप से दूरी नहीं. मेह बारिश के दिनों को छोड़ दें तो दो चार दिन की बादलवाही से जी उचाट होने लगता है. तो जिस दिन धूप को पहली बार मुस्कुराते देखा उसी दिन अखबार में एक खबर थी. खगोल विज्ञानी ग्रेम लॉफलिन ने पृथ्वी की कीमत 30 लाख अरब पाउंड निकाली है. उनकी गणना में पृथ्वी सबसे महंगा गृह है. शायद दिल के किसी हिस्से में डर ने दस्तक दी. कि कल को लॉफलिन के भाई बंधु हवा, धूप, पानी का हिसाब किताब भी कर लेंगे. उसके बाद डीलर बंधु आएंगे फीते हथौड़े लेकर. लकीरें खींचने, बांटने के लिए! एक दिन पता चलेगा कि उन्होंने धूप को बांट दिया और मेरे हिस्से की धूप किसी और ने खरीद ली. धूप गर मेरी बालकनी में बैठकर मुस्कुराई नहीं तो हमारा दिन कैसे शुरू होगा. हमारे जैसे कई लोगों के दिन, दिन न होकर लंबी स्याह रात हो जाएंगे?
लेकिन दिमाग जानता है कि इस तरह की अगड़म-बगड़म बातों के बारे में सोचकर दुखी होना भी एक तरह का फोबिया है. यह बात, डर के चूहों को भगाने के लिए बिल्ली जैसा काम करती है. कई बार अपने उन अज्ञात पूर्वजों का प्रणाम करने का मन करता है जिन्होंने मुस्कुराती धूप को हमारे घर आंगन और चेहरे तक सुरक्षित पहुंचाया. लॉफलिन जैसे विज्ञानी और पचौरी एंड ब्रदर्स जैसे भाई लोग आने वाले दिनों में क्या कबाड़ा करने वाले हैं, पता नहीं. इसलिए जब भी धूप मिलती है मुस्करा लेता हूं और प्रार्थना करता हूं कि वह आने वाली कई पीढियों के दिन के किवाड़ इसी तरह मुस्कराते हुए खोले.
खिड़की से
धूप के साथ
छनकर आई है जिंदगी
और रोज मैंने
झाडू़ से
बुहारी है जिंदगी.
(कविता का अंश, फोटो साभार)
धूप मुबारक! तमसो मा ज्योतिर्गमय!
bahoot hi badhiya rachana prithvi bhai
खूबसूरत !
आपकी भाषा मुझे हमेशा बांध कर रखती है. इसमें कुछ शब्द तो इस तरह मन पर चिपक जाते हैं कि उनकी खुशबू छूटती ही नहीं.
जब पानी बिक रहा हो तो ऐसे में धुप बिकने की कल्पना करना कोई गलत कल्पना नहीं है ऐसा हो सकता है..कुछ भी तो नामुमकिन जैसा नहीं है…
अभी धुप bikaun नहीं है……
तो क्यों ना अभी जी भर के जिया जाए…..
उस दिन तक जब तक ये bikaun ना हो जाए…
पोस्ट ने दिल जीत लिया सर….
कमाल की पोस्ट लिखी है….कसम से हमें तो मोहब्बत हो गई है आपकी दीवाल पर बैठी मुस्कुराती धुप से..बताइए हम गर इसे प्रपोस करें तो आपको जलन तो फिल नहीं होगी ना..
बहुत सुन्दर ! थार की ज़िंदगी धूप की तरह परोस दी आपने !
शानदार !!
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*шєlςσмє*
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इस पोस्ट के लिए
बस इतना कहदूं – वाह !
……….और………..
“खिड़की से
धूप के साथ
छनकर आई है जिंदगी
और रोज मैंने
झाडू़ से
बुहारी है जिंदगी.”
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इस कविता के लिए- वाह ! वाह !! वाह !!!
diwar par muskurati doop jansatta akhbaar mein padha.
bahut achcha laga.
aaj kal aise lalit nibandh bahut kam like jaate hain
– virendra mehndiratta
क्या कहने