ये रात, ये आवारगी और ये नींद का बोझ,
अपना घर होता तो घर गए होते.
आषाढ़ की पहली बारिश ने पेड़ पौधों से लेकर सड़क तक को धो दिया है. रात के साढेक दस बजे दफ्तर से निकला तो चतुर्दिक नमी और हवा में अच्छी खासी ठंडक है. आसमान में बादल, उत्तरादे में बिजली चमक रही है. मेह और होगा. इस बार अच्छा मेह हो. गांव में पशुओं के लिए चारा खत्म होने वाला है. घर की एक छत इस बार शायद बदलनी पड़ेगी. संसद मार्ग पर लाला के ढाबे पर ‘किशोर से बच्चे’ दिन भर की मेहनत के बाद तिरपाल के नीचे तिरपाल पर सो रहे हैं. सामने संसद है. संसद के पास से होते हुए रफी मार्ग पर आया तो अंधेरा. इक्का दुक्का ही साधन. दो चार लोग हैं जिनमें से ज्यादातर मोबाइल पर किसी न किसी को अपनी परेशानी बता रहे थे. बारिश के बाद की, बस नहीं मिलने, ट्रेन छूटने की आदि…. कुछ देर उस अंधेरी सी जगह पर खड़ा रहा पर लगा कोई साधन नहीं मिलेगा तो राजेंद्र प्रसाद रोड़ की तरफ चला आया. वहां स्ट्रीट लाइट जल रही है. सड़क किनारे जमा मेह का पानी रह रह कर पैरों को छू रहा है. पानी पानी पानी… एक जगह जमा पानी को हथेली में भर लेता हूं और अपने होठों तक ले आता हूं. लगता है कि पी लूंगा और प्यास ऐसी थी कि पता नहीं जिस्म के किस रक्तकण से शुरू हुई और पूरा डील तप गया. हथेली का कुछ पानी मानों आंखों में आ गया और बाकी थरथराहट में कपड़ों पर बिखर गया. अपन धम्म से फुटपाथ पर बैठ गए.

फ्लेश बैक एक : प्यास, पानी व दादी
एक बच्चा, उसकी दादी और जेठ की तपती दुपहरी. यह कोई 25 साल पहले की बात है. दोनों जब थार के एक छोटे से अड्डे पर बस उतरे तो बच्चे को प्यास लगी थी. अड्डे से चार किलोमीटर दूर ढाणी अभी जाना था और पानी दूर दूर तक नहीं. नहर बंद थी. हां नहर के तल में कुछ पानी खड़ा था. दादी ने पानी को देखा और सहेज सहेज कर कदम रखते हुए नहर में आधे तक उतर गईं. कुछ छींटे अपने मुंह पर मारे और कुछ बूंदें हथेली में लेकर कंठ गीले किए. लेकिन पोते का क्या हो? चार साल का पोता जो नहर किनारे खड़ा दादी के चेहरे, नहर के मटमैले पानी को देख रहा था. दादी ने अपनी हथेली में पानी भरा और पोते की ओर बढाया लेकिन उनकी अंजुरी के पानी और पोते के प्यासे होठों के बीच दूरी ज्यादा थी. दादी का हाथ वहां तक नहीं पहुंचा, पहुंचा तो कंपकपाती हथेली से पानी पहले ही बिखर गया. पोते को नहर में उतारने को दादी का मन नहीं मान रहा था. तीन चार बार की कोशिश लेकिन बात नहीं बनी. दादी ने इधर उधर देखा, कुछ नजर नहीं आया सिवाय अपनी जूती के. दादी ने जूती उतारी, पानी भरा और पोते को दे दी. गट गटा गट. पोता पानी पीता गया .. दो बार. दादी ने जूती पहनी. अपनी गीली हथेली पोते के मुहं पर फेरी और दोनों ने मुस्करा कर राह पकड़ी. जेठ का सूरज आसमान में था. दूर धोरों में खेजड़ी के नीचे दो नीलगाय बैठी सुस्ता रही थीं.
फ्लेश बैक दो : दादी, घूंटी और ये पोता
नवजात शिशु को ऊपर के दूध को जो पहला अंश रूई के फोव्वे से लगाकर पिलाया या चुसाया जाता है उसे घूंटी कहते हैं. इस पोते को घूंटी दादी ने ही दी थी. कहते हैं कि इसी लिए अपन में उनके गुण नज़र आते हैं. अपना स्वभाव, हावभाव, काम करने का तरीका.. बहुत कुछ दादी पर गए हैं. शायद हों. बच्चे में मां बाप की सात सात यानी कुल मिलाकर चौदह पीढियों के गुण आ जाते हैं, ऐसा सयाने लोगों ने कहा है. लेकिन घूंटी देने वाले का शिशु के स्वभाव पर ज्यादा ही असर होता है. सात बेटों व एक बेटी वाले लंबे चौड़े परिवार में चतरी दादी का अपने प्रति खास स्नेह रहा होगा. पता नहीं, लेकिन ऐसा बहुत बार लगा है कि अपनी एक नाड़ उनसे हमेशा बंधी रही.
अपने यहां राठी गायें बहुत हुआ करती थीं. गुड़ जैसे रंग वाली, छोटे सींग और बड़ी धुन्नी वाली राठी गायें. दादी जिस दिन भी दूध निकालतीं, अपनी कई बहुओं की तीखी नजर के बावजूद अपने को बुला लेती और कभी सीधे गाय के थन से धार अपन के मुंह में डाल देतीं, या पीतल वाले बड़े गिलास में निकाल कर देतीं. उस दूध की गर्मी व स्वाद पता नहीं अपने रक्त के श्वेत कणों में कैसे बस गया. एक बार दादी गायों को चारा डाल रही थीं और अपने गाय की सींग पर हाथ फेर रहे थे. चारा खाते समय लाड करना गाय को नहीं भाया और दे मारा सींग अपने सिर में. बस फिर क्या, कहते हैं कि फिर कभी दादी की उस गाय से नहीं बनी.
अपन ने जि़दगी में सफर करना दादी से ही सीखा. ट्रेन में पहली यात्रा, बस यात्रा.. या पैदल यात्रा.. अपनी हर पहली यात्रा की यादों के धागे दादी से जुड़े हैं. दादी ने हमें कुछ नहीं सिखाया, पर लगता है कि पानी की कद्र करने से लेकर यात्रा की खूबियां, जमीन से लगाव के जो रेशे अपनी धमनियों में बह रहे हैं व उसकी घूंटी से चले आए जो दादी ने अपने दी. इस संसार अन्न का पहला अंश. अपने पास उनकी कोई तस्वीर नहीं है और यादों की दीवार पर उनकी जो आकृति उकरी है वह इतनी निराकार से हो गई है किए एक शब्द भर रह गया है – दादी. गांव जाता हूं तो उनकी समाधि पर जाने का हौसला नहीं कर पाता. इतनी हिम्मत नहीं होती.
बाइक वाला और बारिश!
बाइक वाला कुछ पूछ रहा था, शायद इंडिया गेट, साउथ एक्स, बदरपुर बार्डर या कहीं और का रास्ता. लेकिन उसके शब्द समझ नहीं आये. शायद वह भी कुछ समझ नहीं सका. अपन नहीं बोल पाये बस हाथ हिला दिया कि नहीं नहीं पता. हथेलियों की नमी और आखों के पानी ने समंदर का रूप ले लिया जिसमें अपना वजूद डूबता जा रहा है. ढाणी, चक, गांव, शहर, जयपुर, दिल्ली, लंदन.. पूरी दुनिया .. मानों हर तरफ मेह बरस रहा है. एक नहर के किनारे अपन अकेले खड़े हैं; प्यासे, देखते देखते लगता है कि मेरे जैसे अनेक पोते खड़े हैं; एक पूरी पीढ़ी खड़ी है. हमारी प्यास जैसे जैसे बढ़ रही है, पानी की नहर रेत के समंदर में बदलती जा रही है. हमारे और पानी के बीच के दूरी को पाटने के लिए न तो दादी है न ही उनकी जूती !!!
बारिश होने लगी, तेज .. बरसता पानी थोड़ी सी देर में अपने पैरों को भिगोते हुए बहने लगा. पानी बरस रहा था. हर कहीं ..
अरे भाई दादी और माँ ही तो हमें संस्कारों से पोषित करती हैं, वही हमें प्यार करना सिखाती हैं, हम कितने अच्छे हैं, और हमारी धमनियों वह प्यार और संवेनशीलता कितनी रफ़्तार से दौड़्ती है, यह उन्ही पर निर्भर करता है। राजस्थान के लोग पानी की कद्र समझते हैं, क्योंकि उन्हे इस समस्या से दो चार होना पड़ता है, और यह समस्या राजस्थान के लोगों में अदम्य साहस का भी प्रादुर्भाव करती हैं, एकता का भी। काश पानी जैसे अनमोल तत्व की कद्र सभी कर रहे होते तो…..!!
Dadi ki kahani to sada amer rhegi, unka prem, dular,dante, makhani aur roti sab, aaj bhi bahut yad aati hai, kitne achhe saskar diye dadi ne,
aapne bahut achha likha, dadi ki yad aa gai aur ankhe aansu se bhar aai.
bheegi -bheegi si post ne man ko bhi bhigo diya…bahut khoob….
{*} दादी {*}
ठाह नी
कठै लादी
दादै नै
टाबरां रै
खेलण री
आ प्यादी !
जूती में पानी … प्रेम और विश्वास की कल्पना करना भी मुश्किल है…
अपन तो दादी के पास रहे ही नहीं… सो पता नहीं कैसी होती है दादी…
इस बार समाधि पर जाना और कहना कुछ लोगों ने दादी को देखा भी नहीं है लेकिन मैं जानता हूं कि तू मेरे पास है मेरी यादों में…
good.
prithvi
pani and barish par aapkee drafting bahut achhi hai.
thanks
अच्छी यादें हैं। ऐसे में जगजीत साब का यह गीत जरुर मन को भायेगा
मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी…
KUCH PANKTIYAN YAAD AATI HAI…
CHARCHAON MEIN WAQT PURANA ACHHA LAGTA HAI
KABHI KABHI YE NAYA ZAMANA ACHHA LAGTA HAI
PADH LIKHKAR BAHUT DEEGRIYAN LE LI HAMNE
LEKIN
ABH BHI DADI KA WO SAMJHANA DHAMKANA ACHHA LAGTA HAI
khoobsurat abhivyakti…dil se
very good post
Tum to ghar lauta laye Prithvi bhai…
bhai hamesha emotional karne ka kya theka hi le liya hai kya? very good yar
[फ्लेश बैक एक : प्यास, पानी व दादी]–नहर बंद थी. हां नहर के तल में कुछ पानी खड़ा था.
भाव अच्छा लगा
dil ko chune wala pyar