काचर राजस्थान में खाने में ही काम नहीं आता, साल भर बतरस की तरह भी बरता जाता है.
काचर, एक ऐसा शब्द जो थार में बात को नया रस देता है. काचर, एक ऐसा फल (या सब्जी) जो छठ बारह महीने थार में थाली को चटपटा बनाए रखता है. दो मुहावरे हैं- काचर गा बीज और अठे कै काचर ल्ये (काचर का बीज/ यहां क्या काचर ले रहा है.) काचर अपने तीखी खटास या अम्ल के लिए भी जाना जाता है. काचर के एक छोटे से बीज को अगर एक मण (40 किलो लगभग) दूध में डाल दें तो वह पूरे दूध को फाड़ देगा. खराब कर देगा. यहीं से ‘काचर का बीज’ मुआवरा निकलता है यानी कुचमादी, गुड़ गोबर करने वाला, अच्छे भले काम को बिगाड़ने वाला. इसी तरह ‘यहां क्या काचर ले रहा है’ मतलब यहां क्या भाड़ झोंक रहा है, जाकर अपना काम क्यों नहीं करते?
किसी विशेषकर छोटे या बच्चे की खिंचाई करने के लिए काचर का बीज, काचर सा न हो तो, काचर बिखरने जैसे वाक्य मुआवरे हर किसी की जुबान पर रहते हैं. अधिक शरारती को मटकाचर (बड़ा काचर) कह दिया जाता है.
दियाळी रा दीया दीठा, काचर बोर मतीरा मीठा (दिवाली के दिये दिखाई दिये और काचर, बेर और मतीरे मीठे हुए क्योंकि दिवाली बीतने पर काचर बेर और मतीरे मीठे हो जाते है).
खाने में काचर की बात की जाए. काचर यानी ककड़ी का छोटे से छोटा रूप. काचर, काकड़ी, मतीरा, खरबूजा ये लगभग एक ही वंशकुल के तथा थार की बालुई मिट्टी में कम पानी में होने वाले फल सब्जियां हैं. वैसे ये सभी फल हैं लेकिन इनका काम सब्जियों में ज्यादा होता है. काचर तो काचर ही है. काचर हरा होता है तो बहुत खट्टा मीठा होता है और उसे कच्चा खाने का सोचते ही मुहं में कुछ होने लगता है. कच्चे काचर को लाल मिर्च और थोड़े से लहसुन के साथ कुंडी में रगड़कर, चुंटिए, दही या छा के साथ खाने को जो मजा है, मानिए गूंगे का गुड़ है!
वैसे काचरी को आयुर्वेद में मृगाक्षी कहा जाता है और काचरी बिगड़े हुए जुकाम, पित्त, कफ, कब्ज, परमेह सहित कई रोगों में बेहतरीन दवा मानी गई है.
काचर थोक में होता है. उसके छिलके को उतारकर टुकड़ों में काट जाता है और धूप में सुखा लिया जाता है. सूखकर काचर, काचरी हो जाता है और काचरी की चटनी तो .. कहते हैं कि आजकल पांच सितारा होटलों में विशेष रूप से परोसी जाती है. काचरी की चटनी तो बनती ही है इसे कढ़ी में डाल दिया जाता है, सांगरी के साथ बना लिया जाता है या किसी और रूप में भी. कचरी की चटनी का सही स्वाद उसे साबुत लाल मिर्च के साथ कुंडी में या सिलबट्टे पर रखड़कर बनाने व खाने में ही है. काचर काचरी थार में घरों में छठ बारह महीने उपलब्ध रहते हैं. भोजन में स्वाद और बातों में रस घोलते रहते हैं.
| Cucumis pubescens, cucumbers| फोटो इंटरनेट से गई हैं. कुछ जानकारी आपनी भाषा ब्लाग से साभार|
पृथ्वी जी,
काचरी मेले तो भेज दिजो।
वैसे काचर इधर हाड़ौती में भी होता है, लेकिन सूखा काचर कठिनाई से उपलब्ध होता है। अगली यात्रा में जोधपुर से लाना पड़ेगा।
काचर खाने का सोचते ही मुहं में कुछ होने लगता है… Kahe dila diya yaad Des re… कचरी की चटनी bajare ke sogare aur chhachh… Agali post mein Lapsi ke bare mein zaroor likhiyega.
Yug badale sadiyan biteen par gaye dinon ka sawad mooh se jata hi nahin…
Abhaar
मुँह में पानी आ गया पृथ्वी जी.
कहाँ आपने उस चटनी की याद दिला दी….लेकिन शुक्र है कि अभी वो स्वाद घरों में बचा हुआ है.
शहरी सभ्यता के प्रसार के साथ-साथ थार की थाली से ये चीज़ें कम होती जा रही हैं.
आपकी पोस्ट बेहद पसंद आई …आभार..
OR JANO KACHAR KO-
MAT KACHAR
BADKACHAR
BAADKACHAR
KHEER KACHAR
likatiya kachar
dharidar kachar
KACHAR SYUN BANE-
kachri
kokla
kachri mala
MAT KACHAR AR KAKDI SYUN BANE
KHELRA
kachra
AAN SAGALAN SYUN BANE-
chatni
kacharan ri kadhi
PANCHBHEL E BANE-
sangri
kumto
kachri
bhe
lal mirach sabti
aan panchun cheejan ne bhel’r banaije panchbhel sag-jako teej tyoharan,bhoj-jeeman mathe ar
barat saru bane
OKHANA-
kachar ro beej
kachri talno
AADDI-
NO JAYA ,NO PET ME,NO NANERE JAY,MATTO KARUN TO OR JANU ,PAN KALL PADYAN KE KHAY?
BATAN GHANI HAI PAN BAKI FER !
पृथ्वी जी, ‘काचर रा बीज’ माने एक हिसाब सूं आदमी रे व्यक्तित्त्व री सबसूं तगड़ी आलोचना.
हमारे लोकोक्तियाँ और मुहावरे लोक-जीवन के इन्ही महत्ती सन्दर्भों से बनते है और और इन्ही के कारण सदियों टिके भी रहते है. और जैसे ही इनका अस्तित्त्व ख़त्म होता हैं, उन मुहावरों और लोकोक्तियों का अस्तित्त्व भी ख़त्म होने लगता हैं. काचर, मतिरा और टिंडसी पचिमी राजस्थान के जीवन का (विशेषतः ग्रामीण जीवन का) आधार है, उसके जीवन का अक्षय स्रोत है. एक उदाहरण के लिए, जैसे ही हम कई ग्रामीण मित्रों ने पढाई के लिए अपना गाँव छोड़ा, और शहर में बसना चाहा तो, वहाँ की बेहिसाब महंगाई के चलते हमारा दम फूलने लगता और नतीजन बार-बार गाँव को भागना, यानि हम वहाँ बस न सके, क्योंकि वहाँ की हरी सब्जियां और अन्य सामान एक सामान्य ग्रामीण की औकात से बाहर की चीज थी, ऐसे में यह काचर-मतीरे की सुखी सब्जियां ही थी जो सालों-साल हमें जिला सकी. भले ही काचर की अम्लीयता चालीस मन दूध को यह बिगाड़ती हो पर वह ग्रामीण जीवन को सबसे सुखद रूप में संवारता भी है, और यही इसकी हकीकत है. बेहद खुबसूरत पोस्ट. शुक्रिया. पुखराज जांगिड.
प्रिय पृथ्वीजी
शोर मचाने , हो-हल्ला करने की अपेक्षा आप मौन साधक की तरह निरंतर ठोस कार्य कर रहे हैं , जिससे राजस्थान की भाषा , संस्कृति , दैनिक जीवन , तीज-त्यौंहार आदि का परिचय बाहरी जगत को सहज – सौम्य तरीके से मिल रहा है ।
ब्लॉग की पूरी सामग्री सहित पिछले दोनों आलेखों
काचर के बीज!
काळी छींट रो घाघरो….
के लिए बधाई और आभार !
यात्रा जारी रहे…
– राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
पृथ्वी भाई, काचर देख हर तो मुंह में पानी आ गया वाकई बड़े कमाल की चीज़ है यह काचर/काचरी.मेरी पसंदीदा चटनी. विश्लेषण भी अच्छा है
चोखो लिख्यो है…
राजस्थान री रंगीली संस्कृति रा न्यारा न्यारा रंग दिखाण सारू आपनै घणा घणा रंग..
टाबरां सारू एक लोक कथा भोत प्रचलित है आपणे अठै…. काणियै काचर आळी कहाणी….सुणी होसी?
very informative article on Cucumis p.
हमारे यहा इससे कचरी बोलते है । हम दिल्ली आ गये है लेकिन इसके स्वाद आज भी मुझे याद है .जब भी याद आता है राजस्थान भाग जाता हू. राजस्थानी लोगो की और खाने की बात ही कुछ और है . एक दिन तो मेने अपने मिडिया ऑफिस में अपनी बॉस को भी यह दी ,बहुत पसंद आई . अब वे अपने घर पर भी बना लेती है . में ही कचहरी उनको राजस्थान से लाकर देता हू .
पृथ्वी जी, क्या मजेदार चीज की याद दिलाई है. हमारी तरफ इसे काचरी व कचरिया कहते हैं. पकते ही बेल से अपने आप झड जाती है. कच्ची कचरिया को बेल से तोडेंगे तो इसकी पूरी संभावना है कि वो कडवी निकलेगी मानो वो कच्ची अवस्था में तोडे जाने का प्रतिरोध करने के लिए कडवी हो गई हो. बाजरे, तिली आदि के खेत में अपने आप ही उग आती है. कचरिया का घरवाला (पति) ‘कचरा’ खीरा जैसा होता है लेकिन खीरा से अच्छा. कचरिया और कचरा, दोनों को काला नमक लगाके खाने का मजा ही कुछ और है. कचरिया की बडी बहन ‘फूंट’ की भी आपने याद दिला दी.
अरे काचर के बारे में एक चीज पता है के नहीं…? चलो मैं बताता हूँ. ..कहते हैं काचर का एक बीज सौ मन दूध भी फाड़ देता है… भाई काचर खाओ तो इन बीजों से जरूर सावधान रहना ..! पर आजकल लोगों ने काचर के बीज का गुण भी अपना रखा है..तो ज़रा ध्यान से..!!
तो आओ अब चटनी का लुत्फ़ उठाते हैं
लोग पांच सितारों में बैठ कर खाते हैं
हम तो इसके साथ
अपनी झोंपड़ी से झांकते
सूरज की छाँव तले
रोज़ ही जश्न मनाते हैं.
शुक्रिया पृथ्वी भाई सा !!
वाह पृथ्वी जी
आलेख पढ़ गे जिसोरो सो होग्यो
म्हारा दादाजी गवार बढे बाद मैं स्पेशल काचर चुगन खातर एक -दो दिन खेत जाव और फेर दादीजी काचरी करगे सुखा गे रख लेव बा काचरी फेर सार साल ताईं खन्वा अब तो गंगानगर नगर मैं दुकान पर भी काचरी मिल जावे है
काचरी ग गुणा क बार मैं तो थे घणो ही बता दिओ और स्वाद गे बार में दूसरा भाइया घनो ही लिख दिओ मैं तो इतो ही कैसुं काचरी गी चटनी गो नाम सुनगे घरे आयडो बटाऊ जक नै दोफारो कारन गी आदत कोणी होवे बिन ही भूख लग जाव .
KACHAR RO KOI JAWAB NI !
KACHAR RI KADDHI ! OYE HOYE HOYE HOYE !!!
MUNDE ME LYAL E AA GI !!!!
AR KACHAR RO BEEJ ?
EKLO E 40 MAN DOODH FAD DEVE !
ALGA REYA !!
DILLI ME KACHAR KAM AR KACHAR RA BEEJ GHANA HAI .
Achha likhaa h. kaachar ki Chatni to Rajsthani Bhajan ka aham hissaa h.
haye kya chatni yaad dila dee.lahsun laal mirch ka tadka muh me pani aa gaya