सवाल शुरू होता है खुद से ‘क्या हमने कोई काम ले-दे कर करवाया है?’ बस, देश में रिश्वत के स्तर और समाज में उसकी मान्यता का अंदाजा यहीं से लग जाएगा. चाय पानी, सुविधा शुल्क, फिक्सिंग, घूस और न जाने कितने नामों से प्रचलित रिश्वत हमारी प्रणाली में घुन्न की तरह लगी और बढती चली गई. न तो रिश्वत नयी बात है और न ही भारत में इसका होना कोई अजूबा. हां, बीते वर्षों में यहां इसका प्रचलन जिस तरह से बढा है और यह धारणा बनी है कि कोई काम बिना लिए- दिए नहीं होगा, वह चिंताजनक है. भ्रष्टाचार करने वाले हजार के नोटों की तरह बढ़ रहे हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले चार आने आठ आने की तरह गायब हो रहे हैं. रही सही कसर उचित समुचित कानूनों के अभाव ने पूरी कर दी है. हालात बिगड़े तीवण जैसे हैं जिसका कोई समाधान नज़र नहीं आता. ‘रिश्वत लेते पकड़े जाने वाले, रिश्वत देकर छूट जाते हैं’- एक सामाजिक यथार्थ और कटु मुहावरा बन गया है.
बीते दिनों की कुछ घटनाएं बताती हैं कि रिश्वत देकर काम करवाना किस पैमाने और किस स्तर पर हो रहा है. उदाहरण के लिए भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् के प्रमुख (एमसीआई) के अध्यक्ष केतन देसाई दो करोड़ रुपये की रिश्वत लेते पकड़े गए. उनके घर से कई कुंतल सोना मिला. आईपीएल में एक फर्म एमएसएम ने अन्य कंपनी डब्ल्यूएसजी को लगभग 400 करोड़ रुपए ‘सुविधा शुल्क’ के रूप में दिए. भारतीय प्रशासनिक सेवा की एक अधिकारी दंपत्ति के यहां करोड़ों रुपये की बेनामी संपत्ति मिली. अब राजनीति की क्या बात की जाए. आरोप ही आरोप हैं, सिद्ध तो कुछ नहीं ना. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर हजारों करोड़ रुपये की घपले के आरोपों से शुरू करें.. पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु. ‘अटक से कटक’ तक भ्रष्टाचार का अश्वमेघी अश्व दौड़ता नजर आएगा. उत्तरप्रदेश में भ्रष्ट नौकरशाहों की एक सूची बनी थी जिसमें तमाम दिग्गजों के नाम थे. पंजाब लोक सेवा आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष रविंद्र सिद्धू के घर से नोटों के ढेर मिले थे. अब समाचार आ रहे हैं कि दवा कंपनियां डाक्टरों को नकद इनाम, विदेशी दौरे तथा गर्म गोश्त तक उपलब्ध कराती हैं. बात कुछ सौ रुपये से निकल कर करोड़ों अरबों रुपये और डालरों में और पता नहीं कहां कहां तक पहुंच गई है.
आंकड़ों की भाषा में बात करें. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल नामक संस्था ने पिछले साल 180 देशों में भारत को 84वें पायदान पर रखा यानी उसकी गिनती भ्रष्ट देशों में है. एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष था कि बारहवीं कक्षा तक के स्कूलों में छोटे-छोटे काम करवाने के लिये बच्चों के अभिभावकों ने एक वर्ष में 4137 करोड़ रुपयों की रिश्वत दी। यानी शिक्षण संस्थाओं और विभागों में काम कराने के लिए औसतन 2744 रुपये की रिश्वत. जिस देश में आबादी एक बड़ा हिस्सा गरीबी की विवादास्पद रेखा से नीचे जीवन जी रहा हो वहां यह राशि हालात की विकटता बताती है. अमरीकी विदेश विभाग ने साल 2008 की मानवाधिकारों पर रपट में कहा है कि भारत में पुलिस और सरकार में हर स्तर पर भ्रष्टाचार मौजूद है। ट्रांसपैरेंसी की एक अन्य रपट के अनुसार भारत में राजनीतिक दल (58 फीसदी) सबसे भ्रष्ट हैं जबकि इसके बाद नौकरशाही (13), संसद-विधानसभाएं (10), बिजनेस व निजी क्षेत्र (9) और न्यायपालिका (3 फीसदी) का नंबर आता है।
रिश्वत वही देता है जिसकी क्षमता हो. मीडिया के शब्दों में किसी तथ्य को तोड़ मरोड़ कर पेश करना या गलतबयानी जैसा है. वास्तविकता इसके ठीक उलट है. प्रणाली या सिस्टम में भ्रष्टाचार की सबसे अधिक मार उन गरीब जरूरतमंदों पर पड़ती है जो अपने सही व आवश्यक काम भी नहीं करवा पाते. जिन्हें उन सेवाओं से वंचित कर दिया जाता है जिसके वे हकदार हैं. प्रणाली या सरकारी मशीनरी में उनके भरोसे के पेड़ पर भ्रष्टाचार अमरबेल की तरह लग जाती है जो धीरे धीरे पेड़ को ही सुखा देती है. यानी आम आदमी का सरकारी तंत्र पर से विश्वास उठ जाता है और उसे लगता है कि बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होगा. किसी भी देश विशेषकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह स्थिति निश्चित ही भयावह हो सकती है. क्योंकि अंतत: लोकतंत्र आम आदमी के विश्वास और उम्मीदों पर टिका है.
भ्रष्टाचारी होने का एक नकारात्मक असर साख पर भी पड़ता है. भ्रष्टाचार देश व प्रणाली की साख गिराता है और विदेशी निवेश प्रभावित होता है. बीते दशकों में भारत चीन भले ही दुनिया के सबसे बड़े बाज़ारों के रूप में उभरे हों लेकिन यहां भ्रष्टाचार उससे भी तेजी से फैला है. चीन जैसे साम्यवादी देश ने प्रणाली में भ्रष्टाचार की बात स्वीकारते हुए इस दिशा में कदम उठाए हैं. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के सर्वे में शामिल 30 प्रतिशत का कहना था कि भारतीय कंपनियाँ अपना काम जल्दी करवाने के लिए निचले स्तर के अधिकारियों को रिश्वत देना पसंद करती हैं. यानी ऐसा माहौल और धारणा बनती है कि बिना रिश्वत दिए कुछ होगा ही नहीं. पिछले साल की वैश्विक भ्रष्टाचार रपट में कहा गया है कि दुनिया भर में फैले भ्रष्टाचार, घूसखोरी, फिक्सिंग और सार्वजनिक नीतियों को निजी स्वार्थों के लिए प्रभावित करने की वजह से अरबों का नुक़सान हो रहा है और इससे टिकाऊ आर्थिक प्रगति का रास्ता भी बाधित हो रहा है.
यहां सवाल यह भी उठता है कि वे कौनसी वजहें हैं जिनके चलते भ्रष्टाचार लगातार पलता फैलता जा रहा है. यहां संकट गहरा है; जिन संस्थाओं और लोगों से उम्मीदें थीं वे खरे नहीं उतरे. ढंग के नियम कानून नहीं हैं. गृहमंत्री पटेल द्वारा शिवनारायण सिंह को रिश्वत लेते गिरफ्तार करवा देने या आईसीएस अधिकारी सीएसडी स्वामी के मामलों को छोड़ दें तो कोई ऐसा उदाहरण नजर नहीं आता जिनसे लगे कि भ्रष्टाचारियों को सजा होगी. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल का कहना है कि जब महत्वपूर्ण संस्थाएं कमज़ोर होती हैं या उनका अस्तित्व नहीं होता तो भ्रष्टाचार काबू से बाहर हो जाता है. इसका मानना है कि जहां राजनीतिक स्थिरता है, और सरकारी संस्थाएं मज़बूत हैं वहां भ्रष्टाचार कम है.
दूसरा महत्वपूर्ण और बड़ा सामाजिक पहलू भी है. बीते दो दशकों विशेषकर उदारीकरण के बाद हमारी जीवन शैली हीनहीं जीवन के मूल्य भी बदले हैं. सफलता और सुंदरता को जब जीवन का ब्रह्म वाक्य मान लिया गया हो तो नैतिकता के लिए गुंजाइश नहीं रहती. प्रणालीगत देरी के बीच पैसा देकर अगर जल्द काम होता हो तो करवाने में कोई हर्ज नहीं माना जाता. धैर्य नहीं रहा. राजस्थान में कभी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो अगर किसी पटवारी, ग्रामसेवक या बाबू को लिपिक रिश्वत लेते पकड़ लेता था तो बड़ी जगहंसाई या थू थू होती थी. अब तो ऐसा कुछ दिखता या लगता नहीं. अब तो यह देखा जाता है कि कितनी बड़ी रिश्वत लेते पकड़ा गया. यह भ्रष्टाचार और भ्रष्ट आचरण को स्वीकार करने का नज़रिया है. निराशाजनक, दुखद है कि भ्रष्टाचार कर देश, समाज को ठगने वालों को सामाजिक स्वीकृति मिल रही है जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले सत्येंद्र दुबे जैसे लोगों को असम मौत. गलत काम को सही करवाना और सही काम को गलत ढंग से करवाना ही भ्रष्टाचार है. इसे सिर्फ भौतिकता से नहीं जोड़ना गलत होगा. भ्रष्टाचार वास्तव में नैतिकता के ध्वंसावेशों पर खड़ा दरख्त है जो लगातार बढ़ता फैलता जा रहा है.
sab brast hain……..kya karen ye hindustan hai..yahan jiske chehre se parda nahi utha wo yahan ki janta ke liye bhagwan hai……..
हमारा भारत महान सौ में से 99 बैइमान.
भाइ प्रथ्वी जी,
मेरी मुँह की बात आपने बयान की है। मीडिया भी अपने हित साधने वाले विषयों पर ही भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाती है। भ्रष्टाचार अिभयान केवल पुलिस तंत्र के चारों ओर घूमता रहता है। वहॉं भी सुधार की कोइ गुंजाइस नहीं है। डी,एम, की नाक के नीचे ट्रेजरी में खुलेआम यह खेल चलता है। किसी मीडिया कर्मी या किसी अन्य की क्या मजाल कि विरोध कर के दिखाये। कितनी जगहों के बारे में बयान कंरू। बेतर है कि शांत रहा जाय।
AB TO DONO HI EK DUSRE KE PARYAY BAN CHUKE HAI. BHARAT KI BAAT HO TO BHRASTACHAR AUR BHARASTACHAR KI BAAT HO BHARAT… AUR IN DONO SE HAMARE ”BHA” SE ”BHAG” HI PHOOT GAYE…
भ्रष्टाचार के मामले में देश की तरक्की काबिले तारीफ है,हमें हमारे नेताओं पर गर्व होना चाहिए..वे जल्दी ही नंबर वन पर होंगे!!
It is a good comment on corruption (NIT-SURAT GUJARAT)