
‘चिड़ी कमेड़ी म्हारी भेण भाणजी, कागळो भुआ गो बेटो भाई रे..’(चिडि़या, कबूतरी हमारी बहिन और भानजी है, काग बुआ का बेटा भाई.. ) बचपन में होली के आसपास यह पंक्तियां बहुत बार सुनी थीं. शायद कोई गीत है. अब बेटी को सुनाने के लिए याद करने की कोशिश करता हूं लेकिन आगे की पंक्तियां बहुत गड मड हो गई हैं. उसके लिए जो मन में आता है जोड़ देता हूं. दिल्ली में आफिस के बाहर कोयल की कूक सुन जाती है. घर में आसपास की छतों पर लोग कबूतर पालते हैं. जो प्राय- सफेद या चितकबरे होते हैं. अनेक चौराहों, रेडलाइटों पर आम कबूतरों के लिए चुगा, दाना पानी रखा दिख जाता है. निजामुद्दीन, आश्रम के आसपास ढलती रात में मोर की आवाज सुनती है.
पिछले साल नोहर जाना हुआ तो साहित्यकार मित्र भरत ओळा के यहां रुका. उनकी पक्की कोठी में बाथरूम के रोशनदान के शीशा के दूसरी तरफ एक चिडि़या का घोंसला है. दरवाजा खुला हो तो बाहर के कमरे से ही चिडि़या को बैठे देखा जा सकता है. सिद्धार्थ बताता है कि यह चिड़ी हर साल यहां आती है, घोंसला बनाने. अभी उसके दो बच्चे भी हैं. शीशा होने के कारण चिड़ी को पास जाकर देखा जा सकता है.
चिड़ी को मासूमियत, कमजोरी से भी जोड़कर देखा जाता है. अनेक मुआवरे लोकोक्तियां इस पर बनी हैं. पंजाबी में लड़कियों को ‘चिडि़यां दा चंबा’ शायद चिडि़यों का झुंड कहा जाता है. इस नाम से एक धारावाहिक भी दशकों पहले शायद दूरदर्शन पर आता था.
बचपन में कच्चे घर की मोरी, लटाण या गाडर के बीच की जगह पर चिडि़यों का घोंसला होता था. चिड़ी के बच्चों को कई बार पकड़ लेते थे. या कि कहीं न कहीं गिरे मिल जाते जिन्हें पकड़ कर घोंसले में रख देते. मोर और टिटहरी के अंडों नहीं छूने के लिए कहा जाता है. क्योंकि आदमी का हाथ लगा होने के बाद ये पक्षी उन्हें सेते नहीं है. ऐसा माना जाता है.
अभी राजेश भाई के यहां गया तो देखा कि 11वें माले पर गिलहरी खेल रही है. नोहर में एक मंदिर में पक्षियों को चुगा, पानी डालने के लिए विशेष अहाता है. नाम भूल रहा हूं. पुराने सभी गांवों में होता है. दिल्ली में संसद के पास तिराहे पर या पटेल चौक जैसी अनेक जगहें हैं जहां लोग पक्षियों विशेषकर कबूतरों के लिए पानी चुगा डालते हैं. यह देखकर अच्छा लगता है. गांव में घर के आंगन और खेत में तो इतनी तरह की चिडि़या दिखती हैं कि सुखद आश्चर्य से कम नहीं.
श्रीगंगानगर के एक मित्र बता रहे थे कि मोबाइल टावरों के कारण चिडि़यों का आना भी कम हो गया है. टावरों की रेंज उन्हें नुकसान पहुंचाती हैं. फसलों में डाले जाने वाले कीटनाशक भी इनके जीवन के दुश्मन हैं. इंटरनेशनल यूनियन फार द कंजर्वेशन आफ नेचर (आईयूसीएन) की ‘लाल सूची’ में इस चिड़ी या गौरेया का भी नाम है और इसे उन जीव जंतुओं की श्रेणी में रखा गया है जिनका अस्तित्व खतरे में है.
बदलते वक्त के साथ चिड़ी कबूतर के साथ ‘भेण बेटी’ वाला संबंध भले ही नहीं रहा हो लेकिन रिश्ता अभी बना हुआ है.
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छज्जे पर बैठी गौरैया
गुमसुम सोच रही
कहां गई आंगन की बैठक
आसन दादी का
बच्चों का कल्लोल
कीमती
सोना चांदी सा
घर क्या बंटा सबके सुइयां कोंच रही
कहां रोज़ चुग्गा
व्यंजन होली दीवाली में
अब जूठन तक नहीं छोड़ता
कोई थाली में
विस्मित गौरैया अपनी ही किस्मत कोस रही. (कविता नीलम श्रीवास्तव की है जो शाहिद जी फेसबुक प्रोफाइल से साभार)
बहुत बढिया पृथ्वी जी. सच में मैं भी बहुत मिस करता हूं चिडी को. गांव में हमारे आंगन में झुंड का झुंड खेलता रहता था, लेकिन यहां दिखाई ही नहीं देती. आपने पुरानी यादें ताजा कर दी. आंगन के नीम या बबूल के पेड में और छप्पर में चिडी के घौंसले हुआ करते थे. चिडी का नवजात शिशु कभी-कभी घोंसले में से गिर जाता था तो बहुत शोर मचाता था. उसको फिर घोंसले में रखने में बहुत अच्छा लगता था. चिडा-चिडी का प्रेम भी अद्भुत होता था.
nice
गौरेया को देखने को आंखें तरस गई हैं. इक दिन एक दिखी तो ऐसी हैरानी हुई मानों कोई बचपन से बिछड़ी सहेली दिख गई. तुमने इसकी सुध, तुम जीते रहो.. भगवान तुम्हें खुश रखे.
पृथ्वी जी, गौरेया: जैसे हमारे आंगन में फुदकती चंचलता हो, हमारे पड़ोस में पसरा भोलापन हो, जैसे किसी बच्चे की आंखों में समाई मासूमियत हो, ये चिड़कली भी आईयूसीएन की रेडलिस्ट में चली गई. मानों हमारे गांव की कोई लाडली विदा की तैयारी में हो… ची ची ची ची ची …..
गुम होती गौरैया की यादों संग फिक्र आपने बहुत ही सलीके सं की है…इधर भी गौरैया को लेकर कुछ ऐसी ही कहावतें प्रचलित हैं।
best
good love this from heart…….we are missing so much of KOYAL KEE KU..KU..
very nice….but one problem in your blog…..you should change blog’s in different language..
samaj mein chiriya aur bitiya ka rishta jis tarike se paribhashit kiya gaya hai shayad jeevan mein ghatnayen iski jimmedar hongi. jab mein apne astitav ke liye sangharsh karti chulbuli, komal, ithrati,gardan hilati, har khatre se anjaan, bholi bhali chiriya ko dekhta hoon to aaj ke daur ki bitiya ke bare mein jaroor sochta hoon
Mobile se niklne wali tarange GAURAIYA k prjanan tatr ko kamjor kar deti hain, jis se uni santaontpatti ki dar kam ho jati hai… Ye bhi ek wajah hai unki snkhya mein aayi kami ki, Aisa haal hi mein knhi padhne ko mila tha… Achha or sargarbhit lekh hai…