डार्विन का विकासवाद और मयूरपंखी रे सपने.
आठवीं मंजिल के फ्लैट में मन्नाडे की आवाज गूंज रही है- सावण की रिमझिम में थिरक थिरक जाए रे मयूर पंखी रे सपने. इस तरफ इशारा करते हुए राजेश भाई कहते हैं कि जीवन से इस तरह का सौंदर्य बोध जाता रहा है. उनके दरवाजे के पास वाली ग्रिल पर एक गिलहरी कूद फांद कर रही है. सामने 11वीं माले की अट्टालिका में कुछ कबतूर बैठे हैं.
इलाहाबाद और उससे पहले मिथिलांचल के किसी गांव से आया थियेटर का एक कलाकार जब महानगरीय जीवन में मिटते सौंदर्य बोध पर चिंता जताता है तो सवाल उठना स्वाभाविक ही है. सवाल उठता है कि सौंदर्य बोध खत्म हो रहा है या हमारी नज़र सौंदर्य के नए प्रतिमान, प्रारूप गढ़ने व उन्हें देखने को राजी नहीं है. अखबार में छप रहा है कि चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के प्रकाशन का यह डेढ़ सौंवा साल है. फिट है वही बना रहेगा की अवधारणा और मयूरपंखी सपनों की दुनिया तथा मिटते सौंदर्य बोध की चिंता. सब सवाल एक दूसरे से उलझ से जाते हैं.
पिछले कुछ वर्षों में विकास और जरूरत ने दिल्ली जैसे महानगरों और गाजियाबाद, नोएडा जैसे उपनगरीय इलाकों में कंकरीट के जंगल खड़े किए हैं. गांव-गुवाड़ से जुड़े सौंदर्य बोध के लिए वहां कोई स्पेस नहीं है. वहां ने गुवाड़ है, न स्पेस जो गांव से आए लोगों के लिए सौंदर्यबोध का आधार है. गांवों में गुवाड़ या स्पेस ही सौंदर्य रचता है. नज़र को विस्तार देता है. तो पिछले कुछ साल में सौंदर्यबोध के लिहाज से जो संकट पैदा हुआ है उसे तथा कुछ जड़ों से जुड़े लोगों की कोफ्त को समझा जा सकता है.
दरअसल जड़ें रखने वाली एक पीढ़ी, जिसे जरूरत या विकास ने शहर में ला पटका, के लिए सौंदर्य, गांव गुवाड़, कुंठा, नजर, हरियाली, स्पेस जैसे शब्द कई न कहीं गडमड हो गए हैं. उसे आठवीं मंजिल तक पहुंच गई गिलहरी कौतूहल का विषय नहीं रही, फ्लाईओवर से गुजरता गजराज सोचने को मजबूर नहीं करता न ही रेडलाईट के पास चौकी पर खेलते बच्चे की मुस्कुराहट आंखों को भाती है. एक पीढ़ी बारिश में नहाना भूल गई है, बस भीगती-भागती है. हर हाल और हर मौसम में रोना मानों एक नीयती बन गया है. कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने शहरों की बदहाली, वहां के लोगों की मानसिकता पर बड़ी बड़ी कविताएं लिखी मानों अमुक शहर में वे एक मिनट भी नहीं टिकेंगे. लेकिन वर्षों बाद भी वे उसी शहर में रचे बसे मिलते हैं. आलोचना या उदासीनता से भी हमारा सौंदर्यबोध कहीं न कहीं छीजा है.
इसी तरह समय और उम्र के साथ ही नहीं जरूरत के हिसाब से भी सौंदर्य की परिभाषा बदलती रहती है. जवानी में हर चीज गुलाबी दिखती है, बचपन में हरी. जब जीत रहे हों तो हर कतरा रस देता है और जब आध्यात्मिक हों तो हर रजकण में भगवान नज़र आता है. यानी सौंदर्य सिर्फ नज़र से नहीं पैदा होता उसका स्रोत और भी भीतर कहीं हैं. उसे सामने लाने में वक्त व हालात भी अहम भूमिका निभाते हैं. हां, इन चीजों से ऊपर उठ चुके लोगों पर ये नियम लागू नहीं होते.
तो शहरीकरण के इस युग में सौंदर्य के प्रतिमान बदल रहे हैं. अब तो बीसवीं मंजिल पर उग आए पौधे, मालों की चुंधियाती रोशनी, कृत्रिम मुस्कान के साथ खड़ी सेल्सगर्ल ही सौंदर्य का पैमाना बन रहा है, बनेगा. एक पीढ़ी के बाद शायद पेड़, पौधे या गिलहरी जैसे जीव जंतु और मन्नाडे की राग में कोई सौंदर्य नहीं दिखे. उसके लिए कंठ नहीं बीट्स ही संगीत का सौंदर्य हो सकता है. या उसे पीपल की पत्तियों के बजाए मनी प्लांट अधिक सुकून देने वाला लग सकता है. जो इसे स्वीकार कर लेगा उसे ही प्रकृति चुनेगी. यही तो डार्विन का सिद्धांत है. प्रकृति द्वारा चयन का सिद्धांत, विकासवाद का सिद्धांत. विकास करना है या बने रहना है तो राजेश भाई जैसे जड़ों वाले लोगों को भी मनी प्लांट की तरह बोतल में उगना सीखना होगा क्योंकि आने वाला वक्त शायद मयूरपंखी सपनों का नहीं बल्कि दिल में दर्दे डिस्को का होगा.
Julia André का कथन है, He doesn’t love me because I am beautiful, I am beautiful because he loves me. <a
तब शायद कंक्रीट के जंगलों पर गर्व करेंगे हम।
पृथ्वी जी, जीवन के सोंदर्यबोध को विकास ने डस लिया है. बारिश में बूंदें नहीं प्रदूषण बरसता है. वसंत में फूल नहीं खिलते, बीमारियाँ फैलती हैं. संवेदनाएं सुप्त हो गई हैं .. आपकी बातें मन को छू गयीं.. बेहद शुक्रिया!
समकालीन यथार्थ पर सटीक टिप्पणी।
भाव व भाषा का संगम स्वयंमेव सौंदर्य बोध कराने में सक्षम।
सादर।
nice blog congratulation
bhut pasand aaya.
गांव से आने वाले अधिकांश लोगों के मन में यही दर्द है. कंकरीट के जंगल उनका चुनाव नहीं मजबूरी है.
बस चार पंक्तिया याद आती हैं ..
नए कमरे में चीजें पुराणी कौन रखता है
कुंडों में परिंदों के लिए मेह पानी कौन रखता है
आप जैसे लोग ही हैं जो संभालते हैं गिरती दीवारों को
वर्ना नए दौर में बुजुर्गों की निशानी कौन रखता हैं.
ना जाने कितने दर्द भीतर और बाहर उठने लगते हैं, तुम भी न जाने किस किस नस पे पांव रख देते हो.. ना चाहते हुए भी … मन को थोडा खोलने को मन करता है.
बहुत खूब .. आपकी लेखनी सोचने को मजबूर करती है.
Dear Prithvi,
Sometimes i think that the main cause of tension and fraction among the persons living in small habitats or village is due to our democratic system. some time ago i was living in a small village and i felt that we all the villagers are living together and brotherhood is live but when panchayat election happen we devided ourselves in groups with individual interests, no one of us was keen to develop our village or society, we were concern with opposition of other group and we thought that this is symbol of our empowerment……………..
this was end of our communal harmony and brotherhoodness. i migrated to city where polished persons resides and don’t interupts in others life, all are puzzled with their matter to earn livelihood.
In such circumstances when i was reading “Mayurpankhi re sapne” i was thinking that behind this stage we and our mindset is liable not otherthan. Materilism has demolidhed our senses.
regards
din kitane pratikool go gaye..
satrangi aankhon ke sapane
baahar aakar shool ho gaye..