एक थेहड़ है या माटी का ढेर. जिसके नीचे एक सभ्यता पाई गई; एक आबादी के संकेत और अवशेष मिले. यह बात आज तक भी समझ में नहीं आई कि कैसे एक विशाल और समृद्ध सभ्यता अचानक माटी के ढेर में दब गई. जैसे शरारती में किसी बच्चे ने अपने खिलौने को माटी में दबा दिया हो. सब कुछ अचानक स्थगित हो गया.. सांसें, हाथ, हवा, चूल्हे की आग सब. सालों साल बाद वही स्थगित हुई संस्कृति उद्घाटित होती है. कोई कहता है कि राखलदास बनर्जी ने खोजा तो कोई दयाराम साहनी या एलपी तैस्सीतोरी को श्रेय देता है. लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि दुनिया में सबसे प्राचीन सभ्य संस्कृति यहां भी थी… सवाल है कि कैसे अचानक यह सब माटी कैसे हो गया. इसका जवाब आज तक नहीं मिला. राजस्थानी के प्रतिष्ठित कवि ओम पुरोहित ‘कागद’ ने कालीबंगा को काफी करीब से देखा है. उनके नए कविता संग्रह ‘आंख भर चितराम’ में कालीबंगा पर कई कविताएं हैं जिन्हें अपने आप में अनूठा बताया जा रहा है. कुछ चुनिंदा कविताएं कांकड़ के पाठकों के लिए ‘आंख भर चितराम’ से साभार ..

1. (कुछ ईंटों के बीच मिली काली मिट्टी, यानी राख. चूल्हा था तो चौकी भी थी और हाथ थे परोसने वाले, लोग थे जीमण वाले.)
इन ईंटों के
ठीक बीच में पडी
यह काली मिट्टी नहीं
राख है चूल्हे की
जो चेतन थी कभी
चूल्हे पर
खदबद पकता था
खीचडा
कुछ हाथ थे
जो परोसते थे।
(कालीबंगा पर अन्य आलेख के लिए यहां क्लिक करें.)
2. (कभी तो रहती होगी चहल पहल इस ऐतिहासिक शहर में )
थेहड में सोए शहर
कालीबंगा की गलियाँ
कहीं तो जाती हैं
जिनमें आते जाते होंगे
लोग
अब घूमती है
सांय-सांय करती हवा
दरवाजों से घुसती
छतों से निकलती
अनमनी
अकेली
भटकती है
अनंत यात्रा में
बिना पाए
मनुज का स्पर्श।
3. (एक आबादी थी जो अचानक ही मानों रेत की बारिश में दबकर स्थगित हो गई. सब कुछ स्थगित हो गया.. खाना बनाते हाथ, चूल्हे की आग, चारपाई पर सुस्ताते घर धणी की सांसें और समूची संस्कृति.)
न जाने
किस दिशा से
उतरा सन्नाटा
और पसरता गया
थिरकते शहर में
बताए कौन
थेहड में
मौन
किसने किसे
क्या कहा – बताया
अंतिम बार
जब बिछ रही थी
कालीबंगा में
रेत की जाजम।
4. (अब न तो थेहड़ बोलता है, न मिट्टी बताती है न वहां मिली हड्डियों से पता चलता है कि कौन राजा था कौन प्रजा. सब एक ही मिट्टी में दबकर एक सी ही मिट्टी हो गए.)
कहाँ राजा कहाँ प्रजा
कहाँ सत्तू-फत्तू
कहाँ अल्लादीन दबा
घर से निकलकर
नहीं बताता
थेहड कालीबंगा का
हड्डियाँ भी मौन हैं
नहीं बताती
अपना दीन-धर्म।
5. (एक दीवार में ऊंचे आळे में मिले जीवाश्म निसंदेह रूप से पत्थर नहीं होंगे. वे तो अंडे थे किसी पक्षी के.)
इतने ऊँचे आले में
कौन रखता पत्थर
घडकर गोल-गोल
सार भी क्या था
सार था
घरधणी के संग
मरण में।
ये अंडे हैं
आलणे में रखे हुए
जिनसे
नहीं निकल सके
बच्चे
कैसे बचते पंखेरू
जब मनुष्य ही
नहीं बचे।
6. (कालीबंगा के थेहड़ में एक मिट्टी का गोल घेरा मिला. कवि कहता है कि वह घेरा कोई मांडणा नहीं, चिन्ह है डफ का. यानी डफ था तो सब था.)
मिट्टी का
यह गोल घेरा
कोई मांडणा नहीं
चिह्न है
डफ का
काठ से
मिट्टी होने की
यात्रा का।
डफ था
तो भेड़ भी थी
भेड़ थी
तो गडरिए भी थे
गडरिए थे
तो हाथ भी थे
हाथ थे
तो सब कुछ था
मीत थे
गीत थे
प्रीत थी
जो निभ गई
मिट्टी होने तक।
(राजस्थानी से अनुवाद मदन गोपाल लढ़ा ने किया है.)
बहुत आभार इस प्रस्तुति के लिए.
nice
कागद जी की कविताएं पढ़ कर लग रहा है मानों कालीबंगा एक बार फिर जीवंत हो गया हो.. ऐसे प्रयास होने चाहिएं.
-vinod nokhwal
pilibangan
कालीबंगा सभ्यता को इससे बढ़िया सम्मान और क्या होगा,सरकार ने भले ही सुध ना ली हो, पर हमारे चित में ये शहर आज भी जिंदा है…
Om Ji ne meri ram ram kahni.
Bhai Om purohit kaged,Ek aise silpkar h jo Aapni kavit k dewra.kalibangan ko phir s jivet ker rehye h.unki kalibangan kavita pdhe ker u lgta h ki kisi chiterkar n phir s kalibangan besa di ho.bhut hi mitha sa ahesas.milta h.Om ji kavita a bhut hi achheye chiterkar h.unki ek -ek kavita bhut hi sunder chitren kerti j.
Om ji ko meri or se kalibangan ko jinda kerne k liye bhadi.
NARESH MEHAN
कृपया ये कविताएँ कृत्या के लिए उपलब्ध करवाएँ
http://www.kritya.in
कालीबंगा पर कविताएं पढ़कर बहुत अच्छा लगा. (ओम कागद) इसी प्रकार लिखते रहें यही कामना है.
sab achha hai.
kavita ke davara kalibanga ke bare main bataya bahut aacha laga. aesi kavita lekhte rahna chahiye.
कालीबंगा पर कविताएँ इस लिए अच्छी लगती हैं की- उन से जो अब नहीं है, वो जब था, तो कैसा था….. ये तय सा हो जाता है. पांच हज़ार साल पुराना सब कुछ इन कविता चित्रों के माध्यम से रचने के लिए “बाबा-वाद” साधू-वाद अब आउट डेटेड है कागद जी.