‘लोहड़ी-लोहड़ी लकड़ी, जीवै थारी बकरी, बकरी में तोत्तो, जीवै थारो पोत्तो, पोतै री कमाई आई, छम-छम करती लोहड़ी आई.’
बचपन में जुबान चढ़ी कुछ पंक्तियों में से एक ये भी हैं जो चाहे कहीं भी रहें, मकर सक्रांत या लोहड़ी पर जुबान पर आ ही जाती हैं. हर साल 13 जनवरी के आसपास. खेती बाड़ी करने वालों का तो हर त्योहार से अपना अलग ही रिश्ता होता है. हर त्योहार किसी न किसी बदलाव का सूचक लेकर आता है. जैसे लोहड़ी और मकरसक्रांत. जो लोग जमीन हिस्से ठेके, आध, चौथिए या पांचवें पर लेते हैं वे इस त्योहार को मानक मानकर चलते हैं और अधिकतर बातचीत आमतौर पर मकरसक्रांत तक सिरे चढ़ जाती है.
पौ मा (पौष माघ) की कड़कड़ाती सर्दी में आने वाला यह त्योहार है जिससे मूंगफली, रेवड़ी, गज्जक, पापड़ी, तिल, तिल के लड्डू, घेवर, फीणी, गुड़ कितने कितने ही पौष्टिक खाद्य पदार्थों का संबंध है. जिसका संबंध सरसों की पकती गंदल से है, बथुए, बरसीम, कमाद से है, कणक की कोर से है, धान की नई फसल से और हाड़ी के लिए तैयार होते खेतों से है. शिशिर ऋतु की शुरुआत से है, फगुनहट की आहट से है. लोहड़ी फिर मकर सकरांत या मक्र सक्रांति. शायद यह एकमात्र देसी त्योहार है जो हमारे मौजूदा कैलेंडर के हिसाब से 13 जनवरी को ही होता है.
बचपन में बोरी, कट्टे (गट्टे) में घर घर जाकर लोहड़ी मांगते थे. लोगबाग श्रद्धानुसार थेपडि़यां या उप्पले, लकड़ी या बनसटी, तिल, गज्जक दे देते. हर घर से मांगते. बचपन के त्योहारों की यही खूबी आज भी याद आती है. सबको शामिल करो. वंड छको, सिखी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण सूत्र- मिल बांट कर, खाओ. रळ मिळ कर मनाओ. यह हर त्योहार में लागू होता था. पंजाब, राजस्थान और शेष उत्तर भारत में लोहड़ी या मकर सक्रांत है तो दक्षिण में पोंगळ. पंजाबी में जो लोककथा लोहड़ी से है उसमें एक ब्राह्मण कन्या को एक मुसलमान द्वारा डाकुओं से बचाए जाने और उसकी शादी संपन्न करवाए जाने की बात है. सिंधी समाज ‘लाल लोही रै’ के माध्यम से खुद को इससे जोड़ता है.
लोहड़ी से जुड़े अनेक गीत टोटे याद आते हैं.. ‘हिलणा-हिलणा, लकड़ी देकर हिलणा। हिलणा-हिलणा, पाथी लेकर हिलणा। दे माई लोहड़ी, तेरी जीवे जोड़ी।’,”आ दलिदर, जा दलिदर, दलिदर दी जड़ चूल्हें पा।”, ”तिल तड़कै, दिन भड़कै।” दुल्लै भट्टी का गीत – ”सुंदर-मुंदरिये…हो, तेरा कौण बिचारा….हो, दुल्ला भट्टी वाळा….हो, दुल्ले धी ब्याही…हो, सेर सक्कर पाई…हो, कु़डी दा लाल पिटारा…हो।”
कल ही बीकानेर से लौटा हूं. धुंध और पाळे से लिपटा उतरी भारत. रोहतक से लेकर हिसार, सिरसा, बठिंडा, हनुमानगढ़ व बीकानेर तक. फिर भी लोहड़ी की आहट कहीं न कहीं सुनाई दे जाती है. स्टेशनों, बस अड्डों पर मूंगफली, गज्जक पापड़ी की स्टालों के रूप में. वैसे लोहड़ी मांग के मनाने का त्योहार है. मिलजुल के मनाने का त्योहार है.
(राजस्थानी में लोहड़ी पर आलेख आपणी भाषा पर पढें- चित्र नेट से लिया गया है.)
लोहड़ी की बधाई एवं शुभकामनाएँ.
lohadi ki aapko ghani ghani badhaya
aapko bhi mubarak
पृथ्वी भाई, लोहड़ी की राम राम !
-खुशियां हमें बस वक्त देता है,
त्योहार हमें यूं ही परख लेता है.
देखो घिर आई हैं वही घटाएं ईश्वर
‘वंड छको’ आज फिर दस्तक देता है.
लोहड़ी व मकर संक्रांति की शुभकामनाएं… ईश्वर
lohari kee appko bahut bahut bhadai ho
हनुमानगढ़ गंगानगर में तो आज भी लोहरी धूमधाम से मनाई जाती है जबकि बीकानेर में संक्रांत का महत्त्व है..!आपने सही वर्णन किया है,बचपन में हम भी इसी प्रकार लकड़ियाँ मांग कर लोहड़ी जलाते थे..
Really nice article. tussi cha gaye prithvi jee! lohri ki lakkh-lakkh badhai! aur sunaye kya haal hai?
बहुत-2 बधाई हो सर लोहडी पर…
bhut acha likha.
आज त्योहारों में रौनक तो नहीं रही, पर लोहड़ी आज भी अपने अंचल में धूम धाम से मनाई जाती है. आलेख अच्छा लगा.