कागज पर चित्र बनाता बच्चा
बार बार बनाता है
‘ईश्वर’
और हर बार
मिटा देता है रबर से.
(त्रिभुवन की एक कविता)
पत्रकार मित्रों में त्रिभुवन को ‘व्याकरणाचार्य’ कहा जाता है क्योंकि संस्कृत, हिंदी पर उनकी पकड़ अद्भुत है और वे ही हैं जो किसी शब्द विशेष के इस्तेमाल या उसके सही-गलत होने पर बहस करने की कूव्वत रखते हैं. यह भाषा, शब्दों के सही इस्तेमाल के प्रति उनका आग्रह है. लंबे संघर्ष के बाद जयपुर और राष्ट्रीय राजधानी में धमक से पत्रकारिता कर चुके त्रिभुवन का कवि रूप उनके पहले कविता संग्रह ‘कुछ इस तरह आना’ से सामने आया है जो भाषा के प्रति उनकी अगाढ आस्था का प्रतिबिंब भी है. यह संग्रह शब्दों की आकाशगंगा में त्रिभुवन के प्रभावी दखल को ही रेखांकित नहीं करता बल्कि उनके सहारे छोटी छोटी बातों को रचनाशीलता के व्यापक कैनवास पर उकेरने की उनकी हतप्रभ कर देने वाली क्षमता को भी सामने लाता है. अंग्रेजीदां होते इस समय में हम (विशेषकर नई पीढी के पत्रकार/युवा) जिन शब्दों को ‘आऊट डेटड, एक्सपायर्ड’ की श्रेणी में डाल चुके हैं उन्हें त्रिभुवन की कविताएं धम्म से हमारे सामने लाती हैं और हम आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं.
ठेठ ग्रामीण या आम भाषा के शब्दों को अपनी श्रेष्ठ कविताओं में लाना हर कवि के बस में नहीं होता क्योंकि इसके साथ वह अपनी रचनाओं को एक क्षेत्र (भाषा क्षेत्र) विशेष तक सीमित करने का जोखिम भी उठा रहा होता है. त्रिभुवन ने इस जोखिम को बड़े पैमाने पर तथा खुलकर उठाया है और यह उनकी कविताओं की एक खूबी बन गया है जो रड़कता नहीं, आषाढ़/सावन के पहले मेह सा महकता है. ‘कुछ इस तरह आना’ में त्रिभुवन ने मई मास की लू से लेकर देह की ऋतु पर बात की है. गलियों, खेतों में मंडराते भतूळिए व इनबाक्स में एसएमएस पर उनकी पंक्तियां हैं और वे ही चरखे, तंदूर और भैंस वाली जसमिंदर को सर्च इंजिन में तलाशने की बात करते हैं.
त्रिभुवन की कविताएं बिंबों, प्रतीकों की पगडंडियों पर चलती हुई संभावनाओं के नए क्षितिज टटोलती हैं. इन कविताओं में किसी क्रांति या बड़े सपने का कागजी आह्वान भले ही न हो वे सुबह की कोंपलों, आषाढ के अंधड़, चुलबुले बादलों, बीर बहूटी, सरकंडे, रूंख, अरड़ाते ऊंट, बच्चों की क्रिकेट क्रीज, जीवन में स्त्रियों, मां, दोस्तों आदि से बावस्ता आम आदमी के मनोभावों को सांगोपांग ढंग से सामने रखती हैं. जैसा प्रमुख कवि बद्रीनारायण कहते हैं कि त्रिभुवन की कविताएं ताजी हवा का झोंका है, जो अनुवादित या बोझिल एकसार तकनीकी कविताओं को पढकर बोर-व्यथित हो रहे पाठक के दिलो दिमाग पर प्रभावी दस्तक देती हैं. व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि त्रिभुवन का यह संग्रह ‘पहल के लिए ही है’, इससे अच्छा और बहुत अच्छा तो अभी आना है.
//इन कविताओं के भीतर हम एक ऐसे संवेदनशील व्यक्ति या औसत नागरिक को देख सकते हैं जो समय और समाज की विसंगतियों का जिम्मेदार साक्षात्कार करते हुए मनुष्यता के सभी रंगों और संवेदनाओं को बचा रखना चाहता है. – हेमंत शेष//
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कुछ भी नहीं बचेगा एक दिन
इस पृथिवी पर
न वर्षा, न वसंत, न शरद, न शिशिर,
न ग्रीष्म और न वसंत.
कुछ बचना संभव ही नहीं घृणा और उदासी में.
नहीं बचेगा बचना भी इस विक्षोभ में.
……….
जीवन में खिलने का अर्थ खिलने से नहीं,
गिरने, तपने, सूखने, झरने और ठिठुरने से है.
जीवन खिलने से है. ।।।।।।
हिंदी के नए कविताओं में एक ऊबाऊ नीरसता है. वह भाव की भी है, भाषा की भी है और विषयवस्तु की भी. समकालीन कविताएं एक खास तरह की कंडीशनिंग की शिकार हैं, जिसे गाहे – बगाहे आलोचकों और पत्र पत्रिकाओं के संपादकों ने बना दिया है. त्रिभुवन की कविताएं ताजी हवा के रूप में आती हुई महसूस होती हैं. इन कविताओं में इमेजिनेटिव फ्लाइट है और इनकी भाषा का अलग सौंदर्य है. विश्वास है कि इस संग्रह से आज के कविता जगत में फैली मोनोटोनी खत्म होगी. – बद्रीनारायण, प्रमुख कवि व समालोचक
त्रिभुवन, फिलहाल दैनिक भास्कर में हैं. उनसे यहां संपर्क किया जा सकता है- tribhuvun@gmail.com
किताब – कुछ इस तरह आना : त्रिभुवन
बोधि प्रकाशन 0141-2503989
बेहतरीन और जीवन के रहस्य को बताने की एक और कोशिश
बडे भाई त्रिभुवन उन लोगों में से है जिनसे मैंने कविता और शब्द की आरंभिक एवं अनौपचारिक तालीम ली और मुझे उनमे यह भी खूबी नजर आती है कि अपनी आलोचना को भी सहज ले लेते हैं, असहमतियों और आलोचनाओं को भी मुस्कुरा कर सुनने का बडा जिगर उनमें है.
इस कविता संग्रह का आना सुखद प्रसंग है पर भाई नए कवि की तरह केवल प्रशंसा उक्तियां ही पर्यात्त नहीं है, फलैपनुमा प्रशस्तियों के साथ गंभीरविमर्श के बिना कांकड की सार्थकता कुछ बचेगी क्या! न भूतो न भविष्यति की ध्वनि से बचा ही जाना चाहिए. एक पाठकीय जिज्ञासा यह कि कवि के कवित्व जितना ही बुनियादी गुण संवेदनशीलता भी नहीं है क्या, तो हम संवेदनशीलता को कविता की प्रशंसा और कसौटी के रूप में कब तक दोहराते रहेंगे !
सरस्वती नदी की वेदप्रसूता धरती से एक महत्वपूर्ण कवि की पहली किताब का स्वागत एक अफसर और समाजविज्ञानी कवि कर रहे हैं तो बडी ही बात है, मैं तो गौरवान्वित ही होउंगा..
बडे और छोटे भाई से इस बदतमीजी के लिए क्षमा याचना सहित …
पृथ्वी भाई ने आदरणीय त्रिभुवन जी की जिस प्रकार प्रशंसा की है, लगता है कि ‘कुछ इस तरह आनाÓ फौरन पढऩी होगी। त्रिभुवन जी को मैं बचपन से जानता हूं। साथ तो नहीं लेकिन उनके श्रीगंगानगर से जाने के बाद मुझे भास्कर में कार्य का विस्तृत अवसर मिला। ऐसा कोई ही दिन गुजरता होगा जब संपादकीय या गैर संपादकीय विषय पर त्रिभुवन जी का जिक्र न आता हो। फिर जयपुर में उनसे मुलाकात का सौभाग्य मिला। आजकल भाई साहब दिल्ली में हैं और मैं भी। पता नहीं कब दर्शन होंगे। कविता संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई। आशा है आपसे जल्द मुलाकात होगी।
रमन
nice
शानदार समीक्षा, किताब पढ़नी होगी.
बड़े दिनों के बाद त्रिभुवन जी का लिखा कुछ पढने को मिला. पुरानी यादें, बातें ताजा हो गईं. साथ काम किया है, उनके मिजाज से वाकिफ हूं. आगे और बेहतर पढ़ने को मिलेगा यही उम्मीद है.
– प्रमोद पांडेय, मुजफ्फरपुर
पृथ्वी भाई, त्रिभुवन जी की किताब हिंदी में रुचि रखने वालों के लिए नववर्ष की पूर्व सौगात है. उम्मीद है कि आपकी समीक्षा पढकर भी हिंदी पाठक इसे हाथों हाथ लेंगे. कांकड़ के सभी पाठकों को नववर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं …
पिछले दिनों चंडीगढ़ में मेरी एक स्टूडेंट ने ये किताब लाकर दी थी. पहले तो छोड़ दी, लेकिन बाद में पढ़ा तो कुछ कविताओं ने ध्यान खींचा. खास कर मां तुम इंदिरा गांधी क्यों नहीं हो, कविता ने. मैंने इस कविता को कई दफे पढ़ा. मन भर आया, वो दिन याद करके. उन दिनों मैं 30 का था और आज 26 साल बाद जब उस वक्त को याद करता हूं तो यह दिल कांप उठता है. इस कविता ने वो दिन ताजा कर दिए. मुझे इन कविताओं में पंजाब और पंजाबियत की खुशबू आई. जैसे पांचों पानियों का बहता सुर इन कविताओं में कहीं सुनाई दे रहा है. मुझे ये भी याद आ रहा है कि इस कवि की कुछ कविताएं मैंने कई साल पहले सूही लाट और सुर्ख रेखा में भी पढ़ी थीं. अभी पढ़ रहा हूं, मौका मिला तो फिर प्रतिक्रिया लिखूंगा।
नये कवियों की जमात में त्रिभुवन की कविताएं एक अलग तरह की संवेदना लिए हुए हैं..