थार प्रदेश में पानी की संकट को देखते हुए 1600 टयूबवैल (नलकूप या बोरवेल) लगाए जा रहे हैं. राज्य सरकार प्रदेश के सभी सातों संभागों में इस परियोजना पर सवा सौ करोड़ रुपये खर्च करेगी. पूरे काम को इसी साल के अंत तक पूरा कराने की कोशिश है और ऐसे नलकूपों पर मोटर लगवाकर कनेक्शन भी दिया जाएगा.

सवाल है एक ऐसे प्रदेश में जहां पानी को घी की तरह बरता जाता है, ऐसा प्रदेश जिसका एक बड़ा हिस्सा एशिया की सबसे बड़ी नहर परियोजना इंदिरा गांधी नहर से जुड़ा है… वहां इस तरह की योजना की आवश्यकता क्यों आ पड़ी? ये सवाल और इनके जवाब कहीं न कहीं हमारी सोच, समाज और व्यवस्था से निकलते हैं.
राजस्थान के इतिहास पर गौर किया जाए तो एक रोचक तथ्य सामने आता है… जैसे प्राचीन सभ्यताएं किसी न किसी नदी के किनारें पनपी, पली फूली वैसे ही राजस्थान में छोटे छोटे गांवों से लेकर बड़े बड़े शहरों की बसावट भी जलस्रोतों के आपसपास ही हुई. गांव वहीं बसे जहां पानी का बंदोबस्त था. बडे़ शहर बसे तो वहां पानी के भंडारण व वितरण की समुचित व्यवस्था की गई. यही कारण है कि राजस्थान जोहड़ों, ताल तालाबों, कुंडों, सर सरोवरों, बावडियों, डिग्गियों, कुओं का प्रदेश है. बेहद कम मेह और जल के अन्य स्रोतों के बावजूद यहां के लोग जेठ की तपती दुपहरियों में अपनी जीजिविषा का दम खम दिखाते रहे हैं. ऐसा कोई पुराना गांव नहीं होगा जहां का कुआं, जोहड़ प्रसिद्ध नहीं हो. पुराने गांवों के नाम भी इसी तरह सर (तालाब), जोहड़ों व डिग्गियों पर हैं जैसे ततारसर, सोमासर, पक्की डिग्गी, फलां की जोहड़ी आदि. क्षेत्रफल के हिसाब से देश के इस सबसे बड़े राज्य में कुओं, जलाशयों, जोहड़ों की संख्या भी कम नहीं है.
पानी पणिहारी, इंडुणी, पळींडे, घड़े, हांडी जैसे शब्द और इनसे जुड़े संस्कारों का प्रदेश रहा है राजस्थान! नई दुल्हन जब पहली बार पानी लाती है तो आयोजन और नवप्रसूता पहली बार जल भरे तो समारोह! घरों में मटके रखने की जगह यानी पळींडे को मंदिर की तरह ही पवित्र मानने वाला प्रदेश आज बिना वजह पानी के संकट के मुआने पर है तो चिंता जायज है. दरअसल पिछले दो तीन दशकों में लोगों की सोच में जो बदलाव आया उसने एक बने बनाए सिस्टम का सत्यानाश कर दिया. कहते हैं कि राजस्थान में जल संरक्षण और भंडारण की सबसे बढिया प्रणाली है. आमेर के किले में जल प्रबंधन इसका अद्भुत उदाहरण है. लेकिन बदलती सोच, समय और व्यवस्था ने इस प्रणाली की अनदेखी ही नहीं कि बने बनाए स्रोतों को भी खराब कर दिया.
तो एक सभ्यता थी जो सर ताल और जोहड़ों के किनारे बसी. एक समाज था जिसने जल के स्रोतों की कद्र की, इन्हें सहेजा और संवारा. फिर पिछली आधी सदी में एक पीढी आई जिसने एक समृद्ध और मजबूत व्यवस्था की अनदेखी की, उसे तबाह किया. बीकानेर संभाग के नहरी क्षेत्र की ही बात करें सबसे अधिक दुर्गति जोहडों की हुई तो सबसे अधिक कब्जे भी जोहड़ पायतनों पर हुए. किसी भी गांव में चले जाएं पुराना कुआं मिला जाएगा, जिसे या तो पाट दिया गया या जो उपेक्षित पड़ा है. तो एक समृद्ध जल संरक्षण परंपरा को नहीं सहेज सकने वाला समाज नलकूपों का पानी पीकर कितने दिन चल पाएगा? वैसे भी नलकूप लगाने की यह योजना ऐसे समय में आई है जबकि एक चर्चित अध्ययन में कहा गया है कि राजस्थान सहित उत्तरी भारत में अत्याधिक दोहन के कारण भूमिगत जलस्तर बहुत तेजी से गिरा है. गंगानगर जिले में नहरों के किनारे लगे अनाप शनाप टयूबवैल तथा कल्लर (नमकीन, बंजर) होती जमीन इसका सटीक नमूना है.
यहां एक घटना का जिक्र प्रासंगिक होगा.. पिछले दिनों हनुमानगढ़ जिले के एक गांव (शायद धांधूसर) में लोगों ने जल संकट को देखते हुए नकारा छोड़ दिए गए कुएं को जनसहयोग से फिर तैयार कर दिया. इसका पानी अब पशुओं के लिए 24 घंटे उपलब्ध रहता है. यह एक संकेत है जो हमारा ध्यान फिर पारंपरिक जल स्रोतों की ओर दिलाता है. बेहतर होगा कि उनकी सुध ली जाए. नलकूप लगाने की सोचने वाला समाज अगर अपनी विरासत के कुओं, जोहड़ों और बावडि़यों पर ध्यान दे तो शायद ज्यादा लंबा चल सकेगा!
पारंपरिक जलस्रोतों की अनदेखी के कुछ उदाहरण बीकानेर संभाग से..




यदि पुरानी पानी की व्यवस्थाओं पर अमल किया जाए तो संकट ही नहीं रहे | पुराने समय में राजस्थान में राजा ,रानियों ,सेठों और अन्य धनि व धर्मपरायण लोगो ने सबसे अधिक कार्य पानी की व्यवस्था के लिए ही किये है | उनके द्वारा जगह जगह बनवाये गए कुँए ,बावडियां व प्याऊ आज भी उनकी याद दिलाते है |
थाने घणी-घणी बधाई-म्हे पेहलां ही समझ ग्या था “कांकड़” राजस्थान की सैर करणी है। बधाई
we can reduce the water problem by re-charging to “old kuans” completely……………. only requard a step towarce awareness of water for future.
I am From Nohar where lot of “old Kuans” are available to theme no bo body is giving any dem.
I will request to all of you please please please understand the importance of water and COME ON “NOHAR WASIO” WE SHOULD START A ANDOLAN TO RE-CHARGE OUR OLG WELLS (KUAN).
REGARDS
js parmar
jsparmar71@gmail.com
आप सही हैं, आखिर पानी के लिए तो कुछ करना ही होगा लेकिन जरूरी है कि दोहन नियंत्रित तरीके से हो. दिल्ली और उसके आसपास के इलाके में भूमिगत जल पीने योग्य था पर आज हालात बदल चुके हैं और खारा पानी मिल रहा है. कुओं का सूखना इसका दूसरा रूप है. बेहतर होता कि जो कई गैलन पानी बर्बाद जाता है उसका सदुपयोगा हो. एक सवाल और .. क्या सरस्वती नदी थी और क्या उसका कोई अस्तित्व अब भी है? अगर जवाब हां में मिलता है तो थार नखलिस्तान में बदल सकता है.
वर्तमान इंजीनियरों और वास्तुविदों को ये प्राचीन जल स्त्रोत किसी केस स्टडी की तरह लेने चाहिए और प्रयास करना चाहिए कि बिना किसी इगो के वे स्वीकार करें कि उनके डिजाइन भी इन्हीं प्राचीन निर्माण विधाओं से प्रेरित हैं। महाराजा करणीसिंह के समय का वह किस्सा सबको पता होगा- सड़क बनाने वाले इंजीनियरों की टोली के कई दिनों तक सिर खपाने के बाद भी दिशा नहीं मिल पा रही थी जिसपर ऐसी सड़क बनाई जा सके जो रेत के बहाव की दिशा में न आए और रेत से रास्ता दब ना जाए। वहीं से गुजरते एक वृद्ध ने हाथ से मिट्टी उड़ाकर दूसरे हाथ में थामी लाठी से रेत पर लकीर बनाई और इंजीनियर बाबू को बताया कि इस तरह से सड़क की राह निकालिए। इंजीनियर ने पूछा अगर रेत आ गया तो? वृद्ध का कहना था कि हमारी रोहियों (रेगिस्तानी पगडंडियों) पर आज तक रेत नहीं आई, इस पर क्यों आएगा?
रमन, टाइम्स ऑफ इंडिया
समस्या दरअसल में पीढी की सोच को लेकर है !नयी पीढी यूज़ और थ्रो में विशवास रखती है!उसे पुराने जल संसाधनों में कोई दिलचस्पी नहीं है!पर इतिहास दोहराता है सो चिंता शुरू हो गयी है ,पर अभी पुराने कुओं और बावडियों की सुध नहीं ली गयी है !नया नो दिन और पुराना सौ दिन वाली कहावत फिर से चरितार्थ हो रही लगती है!आखिर में इन पुराने संसाधनों को ही फिर से अजमाना होगा,जो विश्वशनीय भी है… !राजस्थान में जल नीति नाम की कोई चीज़ है नहीं,इसलिए इंदिरा नाहर से ना जाने कितना ही पानी रोजाना व्यर्थ बह कर सेम जैसी समस्या उत्पन्न कर रहा हैऔर किसानो भी खेत छोड़ कर जल के लिए आन्दोलन करना पद रहा है…
हमें ऐसी पुरातन धरोहरों की सुध लेनी होगी जो युगों युगों से हमारे प्राण स्रोत रहे हैं. – साधुवाद