
किसान परिवार के लिए दीवाली के अलग मायने हैं. नरमे कपास की चुगाई व ग्वार बाजरे की की कटाई के काम के दिनों में घर की लिपाई पुताई तथा सफाई के लिए समय निकालना होता. यही दिन हैं जब सूरज बाबा की गर्मी कुछ कुछ नम नरम हो रही होती है.
आमतौर पर दीवाली या उसके बाद घरों (साळों, कमरों के भीतर) में सोना शुरू किया जाता है. इसलिए पूरे घर की साफ सफाई की जाती है ताकि बारिश और उससे पहले के जीव जंतुओं कीटाणुओं की सफाई हो जाए. रही सही कसर दीवाली के दीयों की रोशनी कर देती है. यानी घर, आंगन के साथ साथ पूरे परिवेश की साफ सफाई… यही कारण है कि दीवाली के आसपास घरों गलियों में अलग तरह की जानी पहचानी खुशबू तैरती रहती है. नए सिरे से लिपे पुते घर आंखों को सुहाते हैं. जीवन को ऊर्जा देते हैं.
लोग सावणी या खरीफ की फसल को समेटने के लिए नए जोश के साथ तैयार हो रहे हैं. यही समय है जब रजाई गदरों को धो सुखाकर तैयार कर लिया जाता है और गुदडि़यां खेस समेट कर रख दिए जाते हैं. मूंगफली की फसल भी पककर तैयार है. अच्छी सरसों आ रही है. साग के लिए बथुआ तो है ही. टिंडसी, काचर, मतीरे, काकड़ी, अरहर, भिंडी और ग्वारफली खाने के दिन. गन्ना पकने लगा है.
जैसे काणती दीवाली यानी छोटी दीवाली के बाद असली दीवाली होती है. इसी दिन पूजा होता है और रात में रोशनी की जाती है. रोशनी तो कई रात की जाती है लेकिन यह प्रमुख रात होती है. एक आध दिया तो हफ्ते तक घर की मुंडेर, पळींडे या डिग्गी पर रख दिया जाता है. दीवाली के अगले दिन रामरमी होती है. यानी मेल जोल का. गांवों में इस दिन का सबसे अधिक महत्व होता है. लोग एक दूसरे के घर जाते हैं और एक नए सिरे से संबंधों की शुरुआत राम राम, नमस्कार, प्रणाम करते हैं. मिल बैठकर खाते पीते हैं.
इस त्योहार से आम जीवन की जो नाड़ जुड़ी है वह किसी भी अन्य पर्व से अधिक है. यह समूचे परिवार या समाज समुदाय का त्योहार है. टाबर टोली से लेकर बड़े बजुर्गों की इसमें सक्रिय भागीदारी रहती है. इसलिए ही दीवाली सिर्फ दीये या पटाखों का नहीं एक समूचे लोकजीवन का त्योहार है.
कुछ पंक्तियां…
अमावस्या की काली रात में
पानी की डिग्गी और
चौराहे पर रखा दीया
अंधेरे के खिलाफ रोशनी के संघर्ष
का प्रतीक भर नहीं है.
वह एक चिंगारी
जो बहती है हमारी धमनियों से
और चलती हैं
उम्मीदों की चक्करियां.
कार्तिक की नम गरमी में
नई पुती दीवारों
गोबर लिपे आंगन में
महकती है,
धान की बालियों
ग्वारफली टिंडी मतीरे
व काचर में रस घोलती है
दीवाली.
ग्रामीण परिवेश के दीप पर्व के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला। शुक्रिया।
धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
त्योहार का लोक पक्ष्ा सामने रखने के लिए आभार.
चित्र अद्भुत है, सरल और विलक्षण दोनों .
दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामना…
excellent one aspect
रौशनियों के इस मायाजाल में
अनजान ड़रों के
खौ़फ़नाक इस जंजाल में
यह कौन अंधेरा छान रहा है
नीरवता के इस महाकाल में
कौन सुरों को तान रहा है
…..
……..
आओ अंधेरा छाने
आओ सुरों को तानें
आओ जुगनू बीनें
आओ कुछ तो जीलें
दो कश आंच के ले लें….
०००००
रवि कुमार
आप ने तो एक चित्र से उन दिनों की याद दिला दी,जब हम भी गाँव में रहा करते थे!अब कंक्रीट के इन शहरों में वो मज़ा कहाँ….!दिल छु लेने वाला लेखन ..काकड़ का आभार..
pirtha …….virtha janam nahi gayo……lage raho gaon ki khusbu bikherte raho.
दादा आप से ही सीखा है..