हरीश भादाणी नहीं रहे. सजीव रूप में भले ही अब वे हमारे बीच न हों लेकिन लेखन और कर्म की इतनी व्यापक विरासत छोड़ गए हैं कि आने वाली अनेक पीढियां बांचती रहेंगी. तीनेक महीने पहले बीकानेर गया तो उनसे मिलने का मन था. लेकिन कांकड़ के लिए इतना काम निकल गया कि शाम को उद्यान आभा एक्सप्रेस बड़ी मुश्किल से ही पकड़ पाया. भादाणी सा जनकवि थे जो कविता के साथ संघर्ष भी करते थे. वे सिर्फ कवि नहीं थे, कर्मयोगी भी थे. यह अनूठी बात थी उनकी जो उन्हें हरीश भादाणी की पहचान देती रही.

अरुंधति राय के शब्दों में कहें तो लेखक को सिर्फ दृष्टा नहीं होना चाहिए, जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप भी करना चाहिए. भादाणी सिर्फ कविताओं में क्रांति नहीं करते थे व हकीकत की पथरीली जमीन पर खम ठोक कर अपनी बात कहने और उसके लिए जूझने वाले व्यक्ति थे. कविताओं में भूख की बात करना और आम जीवन में किसी मैक्डानाल्ड में बैठक पिज्जा खाना बहुत आसान है. लेकिन भूख को महसूस करना, भूख की बात करना और जरूरत पड़ने पर उसे महसूस करने के लिए भूखा रहना.. यह जज्बा हर व्यक्ति में नहीं होता और न ही वैसा हर व्यक्ति कवि हो जाता है. जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से भादाणी साहब ने स्थापित मान्यताओं, भ्रांतियों व परंपराओं को चुनौती दी और मनसा, वाचा, कर्मणा उसकी पैरोकारी की. बीकानेर के इस सपूत ने अपनी देह मेडिकल कालेज को दान कर दी.
सामंतवादी परिवार में रहने के बावजूद आम आदमी के दर्द को जाना तथा उसकी बात की. सात पुश्तैनी हवेलियों को बेचकर आम घर में रहे. कोलकाता के साथ मुंबई को भी अस्थाई ठिकाना बनाया और गीत लिखे.
राजस्थानी को राजस्थान की पहली राजभाषा बनाने की मांग सबसे पहले भादाणी सा ने ही उठाई थी. बीकानेर के लोकमत कार्यालय में 1980 में राजस्थानी दूजी राजभाषा विषय पर वैचारिक गोष्टी के मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए उन्होंने राजस्थानी को दूसरी नहीं पहली राजभाषा बनाने की पैरोकारी की. हरीश जी अपनी कविता ‘‘ये राज बोलता स्वराज बोलता’’ एवं ‘‘रोटी नाम संत हैं’’ दिल्ली के इंडिया गेट के आगे प्रस्तुत की थी। लोग इनकी कविताओं को गाते हैं, गुनगुनाते हैं।
बंगाल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी हैं ने अपने भाषण में हरीश जी की कविताओं में स्थानीयता के पुट को नकारते हुए कहा कि ये उनको राष्ट्रीय स्तर पर जाने से रोकता है, परंतु भादाणी जी की हिन्दी और राजस्थानी की कविताओं की राष्ट्रीय पहचान पहले से प्राप्त हो चुकी है।
जीवनवृत्त– 11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में जन्म. प्राथमिक शिक्षा हिन्दी-महाजनी-संस्कृत घर में ही हुई. जीवन संघर्षमय रहा और सड़क से जेल तक की कई यात्राओं में आपको काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिले. रायवादियों-समाजवादियों के बीच आपने सारा जीवन गुजार दिया. कोलकाता में भी काफी समय रहे. पुत्री सरला माहेश्वरी ‘माकपा’ की तरफ से दो बार राज्यसभा की सांसद भी रह चुकी हैं। वे 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) के संपादक भी रहे. कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका ‘कलम’ (त्रैमासिक) से गहरा जुड़ाव. प्रौढ़शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें राजस्थानी में. राजस्थानी भाषा को आठवीं सूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता. ‘सयुजा सखाया’ प्रकाशित. राजस्थान साहित्य अकादमी से ‘मीरा’ प्रियदर्शिनी अकादमी व के.के.बिड़ला फाउंडेशन से ‘बिहारी’ सम्मान से सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है.
भादाणी जी की कविता ‘रोटी नाम सत है’.
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलियां फैलाये लोग
भूल रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
[रोटी नाम सत है]
| शब्द, जानकारी व कविता साभार- सिद्धार्थ जोशी http://imjoshig.blogspot.com/ व सत्यनारायण सोनी http://aapnibhasha.blogspot.com/2009/10/blog-post.html तथा प्रेम चंद गांधी http://prempoet.blogspot.com/|
विनम्र श्रृद्धांजलि…
कोटा और जयपुर में हरीश जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। वे हमेशा स्मरण रहेंगे।
प्रस्तुत गीत में ‘शब्द भूग रहे सोटियाँ’ के स्थान पर ‘भूल रहे सोटियाँ’ होना चाहिए। कलम प्रकाशन कलकत्ता से प्रकाशित उन के गीत संग्रह में यह शब्द ‘भूल ही छपा है।
हरीश भादानी जी की स्मृति को सादर नमन ।
कई युगों बाद कोई भादाणी पैदा होता है. अपूर्णीय क्षति हुई है साहित्य जगत को.. विनम्र श्रद्धांजलि.
– सत्यनारायण सोनी
जनकवि को दिल से श्रधान्जली….