
एक तथ्य यह है कि भारत खाद्यान्न के मामले में कुल मिलाकर आत्मनिर्भर है और एक चिंता उत्तर पश्चिम भारत में हर साल भूजल स्तर के चार सेंटीमीटर नीचे जाने की है. दोनों के सिरे कहीं न कहीं हरित क्रांति से जुडते हैं जिसके सूत्रधार वनस्पति विज्ञानी नार्मन अर्नेस्ट बरलाग का पिछले दिनों निधन हो गया. हरित क्रांति के विभिन्न पहलुओं की कतरब्योंत हो रही है. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इस क्रांति ने भुखमरी के मुहाने पर खडे भारत को सिर्फ पेटभर अनाज ही नहीं दिया, उसने हमें एक विश्वास भी दिया कि हम अपने सर पर आई किसी भी विपदा से जूझ सकते हैं, किसी भी आफत से टकराने की हमारी ताकत का अहसास आजादी के बाद अगर किसी आंदोलन ने कराया तो वह हरित क्रांति ही थी. आज दूसरी हरित क्रांति की बात की जा रही है लेकिन भूमि के अंधाधुंध दोहन से पंजाब हरियाणा में जमीन की जो गत हुई है या राजस्थान के उत्तर पश्चिमी इलाकों में पानी का जो संकट है, उसकी बात नहीं की जाती. वह भी तो कहीं न कहीं पहली हरित क्रांति का बाइप्राडक्ट है. यह अलग बात है कि बरलाग ने हमें कम लागत, समय में अधिक उपज देने वाले गेहूं के बीज दिए थे. हमने उसकी फसल ली और बाद में लालची होते चले गए. धीरे धीरे हालात हमारे हाथ से निकल गए. वो हमारी गलती थी. बरलाग को एक दूरदृष्टा और बीसवीं सदी के महान कृषि विज्ञानी के रूप में याद किया जाएगा, चाहिए. एक याद..
बरलाग को बीसवीं सदी का ‘अन्नदाता’ कहा जाता है जिनकी गेहूं किस्मों ने दुनिया में लाखों लोगों को भुखमरी से बचाया. हरित क्रांति, भारत में जिसकी शुरुआत पंजाब से हुई और देखते ही देखते भारतीयों के मुरझाए चेहरों पर एक नया जोश फूंक दिया. आने वाले दशकों में भारत गेहूं के मामले में आत्मनिर्भर था और उसे इसके लिए किसी और देश के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं रही. कागज पर आंकडों नहीं वास्तवितकता के धरातल पर उगी परिणाम की फसल भुखमरी से जूझ रही दुनिया को भोजन देने में उनके अवदान की साक्षी है.
हरित क्रांति विशेष रूप से मेक्सिको, भारत व पाकिस्तान में खाद्यान्न उत्पादन में क्रांतिकारी बढोतरी से जुड़ी है. साठ के दशक में जब ये देश खाद्यान्न के गंभीर संकट से गुजर रहे थे. ऐसे में इन्होंने अधिक उत्पादकता वाली फसलें बोने का फैसला किया जिससे इनके खाद्यान्न विशेषकर गेहूं के उत्पादन कल्पनातीत रूप से बढ गया और कुछ ही साल में यह आत्मनिर्भर हो गए. कृषि विज्ञानी बरलाग को इस हरित क्रांति का पिता या अग्रदूत कहा जाता है. हालांकि इसे सफल बनाने में बड़ी संख्या में अन्य वैज्ञानिकों, किसानों और सरकारों का योगदान रहा. लेकिन मुख्य भूमिका बरलाग की विकसित की गई गेहूं की किस्मों का रही. हरित क्रांति अथवा ग्रीन रेवोल्यूशन शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल यूएसएआईडी के निदेशक विलियम गाड ने 1968 में किया.
बरलाग ने हमेशा ही खेती में नवीनतम प्रौद्योगिकी पर जोर दिया. पद्मविभूषण पाने के बाद एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था,’ मैं भारतीय किसानों से कहूंगा कि नई प्रौद्योगिकी से डरें नहीं. नई जैव प्रौद्योगिकी, किस्मों में आनुवांशिक संक्रमण को लेकर काफी संशय है.. आप किसी फसल को बचाने के लिए 15 कीटनाशक छिडकें इससे बेहतर यही होगा आप एक ही चीज इस्तेमाल करें. यह अद्भुत है.’ बरलाग का तर्क रहा कि जनसंख्या जिस तेजी से बढ रही है, उसका पेट भरने के लिए हमें खाद्यान्न का उत्पादन भी उसी तेजी से बढाना होगा जो खेतीबाड़ी में प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के बिना संभव ही नहीं है. नई तकनीक और प्रौद्योगिकी के प्रति अपने लगाव के कारण भी बरलाग को अनेक बार आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन वे अपने रुख पर कायम रहे. खासकर आनुवांशिक संवर्धित (जेनेटिक्ली मोडफाइड) फसलों के बारे में उनकी खूब आलोचना हुई इसके जवाब में उनका कहना था कि भूखे मरने से अच्छा है कि जीएम अन्न खाकर ही मरें.
भारत सरकार के साथ काम करते हुए बरलाग कई बार यहां आए और रहे. भारतीय खेतीबाड़ी व किसानों को जितना उन्होंने समझा उसके अनुसार वे कहते रहे कि किसानों को समय पर उर्वरक, फसलों का उचित मूल्य तथा सही दर पर रिण मिले. वे इसे भारतीय खेती और किसानों.. दोनों के लिए जरूरी मानते थे. एक बार उन्होंने कहा,’अगर मैं लोकसभा में होता तो बार बार चिल्लाता- ‘खाद, खाद.. सही मूल्य, सही मूल्य.. रिण रिण..’ उनका कहना था कि भारत को खेती में नई प्रौद्योगिकी, संकर बीजों, खाद, उपकरणों में निवेश करना चाहिए जिससे उत्पादकता और किसानों की आय बढे और वे अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकें.
भारत में बरलाग द्वारा विकसित गेहूं बीजों का आना इतना आसान नहीं था. राजनीतिक विरोध, लालफीताशाही तथा पर्यावरणविदों की तनी हुई भौंहें.. ऐसे में बरलाग को तीन लोगों को विशेष सहयोग मिला जिन्हें वे थ्री एस कहते थे जो तत्कालीन कृषि मंत्री सुब्रमण्यम, कृषि सचिव शिव रमण व कृषि विज्ञानी स्वामीनाथन हैं. बरलाग का मानना था कि भारतीय विज्ञानियों, नीति निर्धारकों तथा लाखों किसानों की मदद के बिना वे कुछ नहीं कर सकते थे. जब उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित करने की सूचना दी गई तो उन्होंने लिखा कि वे यह सम्मान इसे भारतीय विज्ञानियों, किसानों के नाम पर लेना चाहेंगे.
वैसे आज हरित क्रांति की सफलता और इसके इतर प्रभावों (साइड इफेक्ट) पर एक बडी बहस छिडी है. विशेषकर जैव प्रौद्योगिकी या जैव संवर्धित बीजों के इस्तेमाल को लेकर, जल, जमीन के अंधाधुंध दोहन और उसके बाद उसके बंजर होने के हालात को लेकर.. निसंदेह रूप से हर क्रांति के अपने दोष गुण होते हैं. हरित क्रांति के दुष्प्रभावों के लिए कहीं न कहीं हम यानी भारतीय किसान भी तो जिम्मेदार ठहराए जाने चाहिए.
|सामग्री विभिन्न स्रोतों पर आधारित|