बूढ़ी नानी की कहानी
थार की बालुई रेत में गुलाबी या चटक लाल रंग का एक छोटा सा जीव मानसून की आषाढ़ में या पहली बारिश के साथ दिखाई देने लगता है. अलग अलग इलाकों में इसके भिन्न भिन्न नाम हैं. कुछ जगह इसे बूढ़ी नानी कहा जाता है तो कुछ जगह लाल गाय. अपनी मुलायमियत तथा चटक रंग के कारण थार के बच्चों में इसकी अलग ही पहचान है. बूढ़ी नानी. पहली बारिश के बाद की दवंगरा के साथ साथ यह छोटा सा जीव जमीन पर आ जाता है और इधर उधर घूमता मिल जाता है; आमतौर पर यह आषाढ- सावण में पहली बारिश में ही दिखाई पड़ता है.
दिखने में यह जीव बेहद मुलायम दिखता है जैसे कि कोई बूढी नानी. मुलायम, कोमल, झुर्रियों वाला, आंखों को अच्छा लगने वाला.. शायद इसी कारण इसका नाम ही बूढी नानी पड़ गया.
थार में इसे बूढी माई, तीज सावण री डोकरी व ममोल के नाम से भी पुकारा जाता है. हिंदी में इंद्रवधु इसी का एक नाम है.
आषाढ़ की पहली बारिश के साथ थार की नरम नरम बालू, मिट्टी के नीचे यह जीव अंडे देता है. आठ पहर में बच्चे बाहर आ जाते हैं. सूरज निकलने के साथ ही यह जीव धरती पर इधर उधर दौड़ता नजर आता है. सूरज छिपने के साथ ही वापस अपने डेरे में चला जाता है. इस जीव की कोमलता को व्यक्त करने के लिए रेशम से भी कोमल शब्द ढूंढना पड़ेगा. इतना नरम की हथेली पर लो तो लगता है यह मैला हो जाएगा. बेहद शर्मीला स्वभाव. बच्चों में बेहद प्रिय. आशाढ के पहले मेह के बाद, धरती की ताप मिली खुशबू को अपनी सांसों में भरकर उछल कूद करते बच्चे इसे देख गाते हैं- ‘तीज-तीज थारो मामो आयो, आठूं पजां खोल दे।’
अंग्रेजी में इस बूढ़ी नानी को रेड वेलवेट माइट (Red Velvet Mite) कहा जाता है जो ट्रोंबोबीडीडेई (Trombidiidae) परिवार का है. इस जीव की जानकारी रखने वाले इसे पूर्ण मकडीवंशी या लूता बताते हैं. आठ पैर वाला यह जीव निरंतर शिकार पर रहता है लेकिन इसे किसी पर हमला करते नहीं देखा गया. ये मानव प्रजाति (Humans) को न तो खाते हैं और न ही डसते हैं. यह अपनी धुन में मस्त रहने वाला जीव है जो आम तौर पर जंगली या वनस्थली में जमीन की पहली परत के नीचे रहता है.
हमारी इस बूढ़ी नानी को पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. यह जीव मृदा संधिपाद या आर्थरोपाड समुदाय का एक हिस्सा है जो जंगलों या वनस्थली में सड़न प्रक्रिया (Decomposition) के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है और यह प्रक्रिया समूची पारिस्थितकी के लिए बहुत मायने रखती है. फंगी और बैक्टरिया को खाने वाले कीटों का फीड करते हुए यह छोटा जीव सड़न प्रक्रिया (Decomposition) को प्रोत्साहित करता है.
इस प्यारे से जीव के ज्यादा दुश्मन भी नहीं होते हैं. संभवत: इसके खराब स्वाद के कारण अन्य कीट, जीव इसे खाना/मारना पसंद नहीं करते. एक अन्य कारण इनका चटक चेतावनीपूर्ण रंग भी है जो अन्य परभक्षियों को दूर रहने के लिए आगाह करता है.
तो यह है हमारी बूढ़ी नानी के परिवार, वंश आदि की कहानी.
(यह सारी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए अनुराधा का आभार, राजस्थानी में रामस्वरूप किसान का आलेख आपनी भाषा पर पढें)
इन्हें हिंदी में इन्द्र वधु कहा जाता है, अब कहाँ दिखते हैं ये नन्हे जीव. इन्सान ने प्रकृति के दोहन में कोई कसर कहाँ छोड़ी है..
भाई पृथ्वी, ‘थार की बूढी नानी’ मन को भा गई. इस पोस्ट के लिए शुक्रिया. राजस्थानी में इसे बूदी माई, ममोल और सावण री डोकरी भी कहा जाता है. रामस्वरूप किसान के कुछ दोहे याद आ रहे हैं. आप भी सुनिए-
बूढी माई बापरी, हरखी धरा समूल.
जानै आभै फैन्किया, गठजोड़े पर फूल.
रज-रज टीबां में रमै, बिरखा माँय ममोल.
जानै मरुधर ओढीयो, चून्दड़ आज अमोल.
चालै धरती सूंघती, बूढी माई धीम.
आई खेत विभाग सूं, माटी परखण टीम.
बूढी माई टीबडाँ, दीख रही इण हाल.
गेरण खातर लाडूवां, बूंदी काढी लाल.
बूढी माई आ नहीं, झूठो बोलै जग्ग.
इंदरानी रै नाथ रो, पड्ग्यो हूसी नग्ग.
बढिया जानकारी
वाह, वाह!
पृथ्वी के दिल में गाँव और उसका परिवेश बस्ता है..
चन्द्रसिंह बिरकाळी ने लिखा है…
जावां च्यारूं कूंट में, जोवां जगत तमाम।
निसदिन मन रटतो रहै, प्यारो मरुधर नाम॥
…
वै धोरा-वै रूंखड़ा, वा सागण वणराय।
वै साथै रा सायना, कियां भुलाया जाय॥
nice
यही इंद्रगोप, सावन की डोकरी आयुर्वेद के चिकित्सकों द्वारा प्रोस्टेट वृद्धि की दवा के लिए मारी जाती है। एक आयुर्वेदिक पेटेंट दवा प्रोस्टिना के रैपर को देखें।
यह कीड़ा तो हमारे यहां भी पाया जाता है, सावण के महीने में ज्यादा दिखता है। इसे यहां रानी कीड़ा कहते हैं, और भी नामों से जाना जाता है जो की अब विस्मृत हो रहे हैं।
अच्छी पोस्ट
वाह पृथ्वी जी खूब लिखा! विज्ञान और समाज को इतनी खूबसूरती से जोड़ा है, कि मन करता है ऐसे सब क्यो नही लिखते। हमारे लोगों को विविध जानकारियां देने का इससे बेहतर तरीका और नही हो सकता! जो न तो खालिश तकनीकी है और न ही इतना आम कि उसमे कोई खास बात ही न हो। मुझे आशा है कि लोग आप के लेखन से प्रभावित होगे और अनोखी व सम-सामायिक बातें हम सब को बतायेंगे। वैसे मैने उत्तर प्रदेश में यह जीव नही देखा!
बहुत ही जानकारीपरक लेख है पृथ्वी सा ! आपका इस जानकारी के लिए आभार।