खेती के दिनों में पढाई
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गेंहू की कटाई का काम जोर शोर से चल रहा है और स्कूली छात्र छात्राओं ने कलम पेन छोडकर दरांती (दांती) पकड ली है. 70 फीसद विद्यार्थी स्कूल न जाकर गेहूं की कटाई में जुटे हैं. स्कूल खाली हैं और शिक्षा विभाग परेशान. मास्टरजी घर घर जाकर अभिभावकों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं. (जींद, हरियाणा से एक खबर जनसत्ता में)
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यह खबर एक उदाहरण है हमारी नीतियों और जमीनी वास्तविकताओं में अंतर का. देश की अधिकतर जनसंख्या गांवों में रहती है और गांव की लगभग सारी आबादी खेती बाडी करती है. खेती के लिहाज से अप्रैल से लेकर जून तक की अवधि सबसे व्यस्त होती है. विशेषकर पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि राज्यों में. इस वक्त कणक के साथ साथ चने, सरसों व जौ आदि फसलें भी पकाव में होती हैं या काटकर खलिहानों में रखी होती हैं. यानी हाड़ी (रबी) के पकाव का समय और खेत खलिहानों में काम ही काम. ऊपर से आंधी, ओले बारिश की आशंका.. सांस लेने की फुरसत नहीं होती.
काम के ऐसे टैम में तो जो भी हाथ मिल जाए कम. अभिभावक भी चाहते हैं कि उनके बच्चे जल्दी जल्दी स्कूलों से निकले और काम में हाथ बंटाए. हम भी ऐसा ही करते थे. परीक्षाएं खत्म होते ही सीधे खेत में.वैसे तो होली यानी फागण के बाद से ही खेतों में काम शुरू हो जाता है. लेकिन उतरते चैत और पूरे वैशाख में तो बस काम ही काम होता है. छह महीने की कमाई और साल भर के दाणे-तूड़ी का सवाल.
पहले की व्यवस्था में अप्रैल के दूसरे पखवाड़े से बच्चे स्कूलों से छूटने लगते थे. खेतिहर मजदूर, किसान मा बाप के लिए वे बड़ा सहारा बनते. और नहीं तो घर में पशुओं को दाना पानी, छोटे बच्चों की देख रेख और बड़े बुजुर्गों की सेवा सुश्रूषा तो कर देते हैं. पंद्रह मई से स्कूलों में वैसे ही छुट्टियां हो जातीं. लेकिन स्कूली व्यवस्था या समय सारणी अब बदल गई है, परीक्षाएं होने के तुरंत बाद छुट्टियां नहीं होती बल्कि अगली कक्षाएं शुरू हो जाती हैं.
शहरों की सीबीएससी या अन्य प्रणालियों पर आधारित यह व्यवस्था गांवों में कैसे काम करेगी, समझ से परे है. वातानुकूलित कमरों में बैठकर नीतियां बनाते समय उन लोगों के बारे में सोचा तक नहीं जाता जिन पर वे लागू होंगी. यह संवेदनहीनता और बचकानेपन की हद है. बाड़ ही जब खेत को खाने लगे, वाली कहावत बन गई है. इसमें दो राय नहीं कि गांव के मजदूर किसान के लिए बच्चे की पढाई से, साल भर के दाने और तूड़ी अधिक मायने रखती है. यह तो अच्छी बात है कि ग्रामीण महीने दो महीने के सहारे के बल पर साल भर बच्चों को पढाने का हौसला कर रहे हैं. काम के वक्त उन्हें अपने बच्चों से बहुत सहारा होता है. गांव में देखा है कि दीपावली के आसपास नरमे कपास की चुगाई के वक्त अनेक बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं. यही हाड़ी की फसल के वक्त अप्रैल मई जून में हो रहा है. पहले क्या था कि दीवाली के आसपास भी लंबी छुट्टियां होती थीं और अप्रैल मई में तो हो ही जाती थीं. लेकिन शिक्षा के लंबरदारों ने व्यवस्था में बदलाव कर दिया. उन्हें लगा यह ज्यादा कारगर होगी.
गांव का बच्चा कायदा स्कूल में पढ़ता है लेकिन जिंदगी के आंक (अंक, शब्द, सार) वह खेतों में मेहनत कर, धक्के खाकर ही सीखता है. नीति निर्धारकों को इस और ध्यान देना चाहिए. खेती के काम के समय स्कूलों की टाइमिंग और छुट्टियों की व्यवस्था व्यावहारिक होनी चाहिए ताकि ग्रामीण अपने बच्चों की पढाई को आजीविका से जोड सकें. वरना हम ही कहेंगे कि गांव में लोग बच्चों को पढाते नहीं हैं. गांवों, ग्रामीण और वहां के बच्चों के साथ यह अन्याय है. नियम बदलने चाहिएं ताकि गांव के बच्चे सही ढंग से पढ सकें.
Dear Prithvi,
You have raised some genuine issues, it is very clear that our nation adopts uniformal education system but there is a need to refine it specialy in reference with village’s ground realities. More than 70 percent population residing in village but more than 70 persent sources are available in urban area. Government should distribute the funds and resource proportionate to population to provide equal status. Due to lack or resources in rural the migration from rural to urban is fast and is creating more and more chellenges before government. If we would like to be a developed nation we have to think about the rural population.
regards
R.K.Nain
पृथ्वी, आपने देहात की ज़िन्दगी की ख़ुशी और ग़म एक साथ याद दिला दिए… मेरे बच्चे शायद दिल्ली में रहते हुए कभी महसूस नहीं कर पाएंगे लेकिन मुझे आपने मेरा विरसा याद दिला दिया… हाय, क्या ही ज़िन्दगी जीते हैं ये बच्चे। इनसे बड़े हम नहीं हो सकते… और बच्चे भी वो जो हमें सबक़ दें कि कुछ सीखना हो तो हमारी ज़िन्दगी से सीखो…
अख़लाक़ उस्मानी, चैनल प्रमुख, VOI MP/CG UP/UK
कमला को क म ला लिखना सिखाने वाली सरकार अपने 100% साक्षरता वाले मिशन् पर भले ही अभिमान करले लेकिन वास्तविकता इससे बहुत ही अलग है । आपका यह लेख सरकारी की सोई हुई चेतना को जगा सकेगा यही उम्मीद है ।
बेशक यह बात बिल्कुल सही है कि खेती और स्कूल के समय में कुछ व्यवहारिक सांमजस्य होना ही चाहिए। नीतिनिर्धारकों को आश्रम व्यवस्था का वह समय याद दिलाना चाहिए जब केवल राजपरिवार की संतानें ही शिक्षा ले सकती थीं। कारण था कि विद्यार्थी को जन्म से उम्र के 25 वर्ष तक यानी ब्रह्मïचर्य आश्रम तक गुरू के आश्रम में रहकर शिक्षा लेनी होती थी। अब घर से 25 वर्ष तक बाहर रहकर बिना परिवार की चिंता किए तो केवल राज या धनाढ्य परिवारों के युवक ही शिक्षा ले सकते थे। ऐसे में गरीब हमेशा शिक्षा से वंचित रह जाता था। वर्तमान शिक्षा पद्धति में भी दृश्य कुछ ऐसा ही है। अगर पूरे मनोयोग से पढ़ाई करनी है तो और कोई काम मत करो और काम करना है तो पढ़ाई में हर्ज। उसपर बालमन जो कि पढ़ाई और घर के काम में गंभीरता से संतुलन बनाने में असमर्थ होता है।
पृथ्वी भाई साहब की चिंता सही है।
रमन,
टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली
Hello Sir,
Aapro Blog Bado santro hai. aapro khet banam school ghano day aayo…..mhe meadia me aavno chahu hu to mhane kai karno padsi sa. jarur batajyo sa.
aapro
Ajay Kumar Soni, Parlika(Hanumangarh)
9460
bhai prithvi apro blog kankar main gavn ri sikhsa re halat ro sacho citran jo ki cinta ro visay .apne mokly badhai
mukesh kumar ranga
mahajan teh.loonkarasar
bikaner