बेटियां : खिलखिलाता, संवेदनशील भविष्य

इस ब्लाग की शुरुआत में ही हम लोग बेटियों की बात कर रहे थे. कई मित्रों का कहना है कि पिछला डेढ दो साल का समय बेटियों का रहा है. इस दौरान अनेक घरों में बेटियां हुईं हैं. मेरे कार्यालय, मित्र मंडली और परिवार में भी अधिकतर के यहां बेटियां हुई हैं. पहली संतान के रूप में बेटी. जिनके यहां बेटी हुई वे खुश हैं. बेटी होने पर थाली भले ही नहीं बजती हो लेकिन पहले जैसे स्यापा भी नहीं होता. एक मित्र कह रहे हैं कि परिवार में संतुलन के लिए कम से कम एक बेटी होना बहुत जरूरी है. वह परिवार में नैतिक व चारित्रिक रूप से संतुलन बनाती है और लडकियों के प्रति आम धारणा को तोडती है.
यहां कई बातें हैं. एक तो बेटियां आ रही हैं, दूसरा उनके प्रति आम धारणा बदली है और तीसरा ये बेटियां उस युवा पीढी की होंगी जो शायद संयुक्त परिवारों से अलग होकर जीवन यापन कर रही पहली होगी. यह जो बदलाव है वह कई मायनों में अनूठा है और चुनौतीपूर्ण भी. भारतीय समाज में बेटियों को एक बार फिर श्रध्दा, विश्वास, पीङिता, अबला, अर्धांगिनी जैसे पारंपरिक व बोझिल शब्दों से इतर बेटी के रूप में देखा जाने लगा है। लडकी को लडकी के बजाय बेटी कहकर बुलाने का जो चलन नई पीढी में शुरू हो रहा है वह शायद ‘रोटी और बेटी’ समान के प्राचीन विचार को फिर से स्थापित कर दे.
राजस्थान के चिर पारंपरिक समाज में इस बदलाव को महसूस किया जा सकता है. यह किसी मूक क्रांति से कम नहीं है कि राजस्थान या पंजाब अथवा हरियाणा जैसे राज्यों में बेटियों को अब बोझ नहीं माना जा रहा . मानसिकता में बदलाव की इस आहट को सुनने की जरूरत है। अनेक मित्रों के सिर्फ बेटी या बेटियां हैं. अब वे इसको लेकर न तो चिंतिंत हैं और न ही बेटा न होने की शिकायत उनके मुहं से कभी सुनी है. एक मित्र के तीन बेटियां हैं. वे कहते हैं कि बेटी परिवार को चारित्रिक तथा नैतिक रूप से संतुलित तथा मजबूत बनाती है। उनका कहना है कि परिवार में संतुलन के लिए कम से कम एक बेटी तो होनी ही चाहिए ही. थार में ही एक बात हमेशा कही जाती रही है कि घर में एक बेटी तो होनी ही चाहिए क्योंकि वह घर को रौनक ही नहीं देती, पारिवारिक रिश्तों में प्रगाढता तथा ऊर्जा भी लाती है.
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परिवार में एक लडकी भी हो तो घर के सदस्य मुसीबतों का सामना करने की क्षमता बढ जाती है. बेटियां घर में सभी सदस्यों को आपस में बांधे रखती हैं और उन्हें अपनी भावनाओं का बेहतर ढंग से इजहार करना सिखाती हैं. इसे यूं भी कहा जा सकता है, ‘स्त्री जन्म देती है और पुरूष जीवन को अर्थ देता है’ की प्राचीन अवधारणा बदल चुकी है। अब स्त्रियां केवल जन्म ही नहीं, जीवन को अर्थ भी दे रही हैं. बंधी बंधाई परिभाषाओं और दायरे से इतर सोचने व देखने से इसे महसूस किया जा सकता है- ब्रिटेन के दो विश्वविद्यालयों का अध्ययन
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परिवार की खुशहाली में बेटियों के योगदान के बारे में ब्रिटेन के दो विश्वविद्यालयों के अध्ययन के साथ साथ ही विश्व बैंक की एक रपट का उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा. इस रपट में कहा गया था कि सरकारी स्तर पर आर्थिक प्रोत्साहन के चलते भारत के अनेक रायों में बेटियों के प्रति आम मानसिकता में बदलाव आ रहा है और अभिभावक भी चाहते हैं कि उनके बेटी हो. विश्व बैंक ने हरियाणा सरकार की ‘अपनी बेटी अपना धन’ योजना के अध्ययन से निष्कर्ष निकाला है. इसमें कहा गया है कि सरकारी मदद मिलने के कारण अभिभावक बेटी की इच्छा ही नहीं रखने लगे हैं, उनकी शिक्षा तथा स्वास्थ्य आदि में निवेश भी अधिक किया जा रहा है. केंद्र की बालिका समृदि्ध योजना सहित अनेक राय सरकारें इस तरह की परियोजनाएं पहले ही शुरू कर चुकी हैं. आंध्रप्रदेश सरकार ने कुछ साल पहले उन परिवारों को एक लाख रुपये देने की घोषणा की जिनके यहां सिर्फ इकलौती बेटी ही है.
इंटरनेट पर बेटियों पर आधारित कई हिंदी ब्लाग हैं जिनमें अपने अपने क्षेत्र के कई परिचित लोग अपनी बेटी की शरारतों, आदतों, बातों की चर्चा करते हैं। परीक्षा परिणामों के समय, प्रतियोगी परीक्षाओं के समय … ऐसे कई अवसरों पर खिलखिलाती बेटियों के फोटों अखबारों में प्रमुखता से छपने लगे हैं. सुष्मिता सेन, निदा फाजली जैसी कई हस्तियों ने बच्चियों को बेटी के रूप में गोद लिया है. बेटी को भी पैतृक़ संपत्ति में अधिकार दिए जाने जैसे नियमों से हालात और बदलेंगे. तय है.
चुनौतियां भीं
लेकिन शायद सबकुछ उतना सुहाना, साफ साफ नहीं है जितना हम बेटी के बाप या अभिभावक होकर सोच रहे हैं. टीवी तथा सिनेमा के कारण समाज में मचे कादा कीचड का सर्वाधिक असर इन्हीं बेटियों पर हो रहा है या होगा. यहां ध्यान आता है अमेरिकी मनोविज्ञानी मेरी पाइफर की किताब ‘रिवाइविंग ओफेलिया ‘. इस किताब में वे कहती हैं , ‘लडकियों के लिए मौजूदा समय अधिक खतरनाक है क्योंकि आज उन उन पर सुंदर ही नहीं, तेज होने का भारी दबाव है. मीडिया के रचे जलसाघरों ने मौजूदा समाज को लडकियों के लिए अधिक जटिल और खतरनाक बना दिया है और वे पहले से कम सुरक्षित हैं.’ भारतीय समाज के संदर्भ में पाइफर की इन पंक्तियों में काफी कुछ और जोडा जा सकता है.

उदाहरण के लिए भारतीय समाज में आज और कल की बेटियां उन युवा अभिभावकों की होंगी जिनमें से अधिकतर संभवत संयुक्त परिवार के सुख से वंचित हो रही पहली पीढी से हैं. यानी ऐसी दंपत्तियां जो अपने पैतृक घरों से दूर शहरों, कस्बों में संघर्ष कर रहे हैं.
जीवन में स्थापित होने की अपनी कोशिश में वे बेटियों का समुचित पालन पोषण कैसे कर पाएंगे यह एक बडा सवाल है क्योंकि यही तो भविष्य की बेटियों का आधार होगा. यहां बात बेटियों के मानसिक विकास तथा शेष समाज से उनके संबंधों की है. ये बेटियां अपनी अगली पीढी के निर्माता होंगी, ऐसे में जडों से जोडे रखते हुए समुचित विकास कहीं और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. सिनेमा, टीवी तथा अन्य मीडिया ने नई पीढी के समक्ष पहचान का जो संकट खडा किया है उसका सबसे बुरा असर बेटियों पर होना तय है. सबसे अलग दिखना, सबसे अलग साबित करना, सबसे अलग बनना ….. अगर यह सब हुआ तो शायद हालात हमारी सोच से भी भयावह होंगे. इसी तरह एक सवाल गांवों तथा शहरों की बेटियों में अंतर का भी है. टेलीविजन, मोबाइल तथा नाना प्रकार के नवीनतम गैजेट ने निसंदेह रूप से क्रांति कर दी है. गांव और शहर का भेद कई मायनों में समाप्त हो रहा है. लेकिन बेटियों को लेकर आम धारणा, गांव की बेटियों के शिक्षा दीक्षा के स्तर के मामले में गांव अब भी पगडंडियों पर हैं तो शहर हाइवे पर. इस ओर ध्यान दिए जाने की जरूरत है.
भविष्य की उम्मीद
भारतीय समाज में बेटियों के प्रति यह बदलाव बिलकुल अपने शुरुआती चरण में है लेकिन यह व्यापक है. यही उम्मीद बंधाता है. बेशक सारा समाज बेटियों के प्रति एक तरह से नहीं सोचता, हर आदमी और परिवार बेटी के जन्म पर खुश नहीं होने लगा और बेटियों की तथा बेटियों के बारे में बुरी खबरें आनी पूरी तरह से बंद नहीं हो गई हैं. लेकिन बेटी के लिए रुखे सूखे ठूंठ में बदल गए समाज रूपी वृक्ष में कुछ कोंपलें, नई टहनियां फूटती दिख रही हैं, उसका स्वागत तो किया ही जाना चाहिए. थाली मत बजाइए, मुस्करा दीजिए या अपनी बेटी की एक जिद पूरी कर दीजिए, यही काफी है. कहते हैं कि बेटियां अधिक खिलखिलाती हैं और वे संवेदनशील भी अधिक होती हैं. इसे ध्यान में रखें तो बेटियों की संख्या बढने से हमारे समाज में संवेदनशीलता बढेगी और शायद वह और जोर से खिलखिलाएगा, किसी बेटी की तरह.
alekh sunder aur sarthak hai abhar
बढिया आलेख है।बधाई।
सुन्दर और सार्थक आलेख.
धन्यवाद
यही बदलाव अब पूरे देश के पढ़े लिखे वर्ग में दिखता है. हाँ बेटियाँ घर के पुरुषों को आपस में जोड़ती हैं. यहाँ तक कि पति पत्नी के रिश्ते को भी वे बेटों के बनिस्पत ज्यादा मजबूती प्रदान करती हैं.
मैं जब कभी भी नाराज होता हूँ तो मुझे मानाने का सहस कोई नहीं करता पर मेरी ढाई साल की बेटी मुझे बहलाती है और वह यह उतनी ही कुशलता से परिवार के बाकी लोगों के साथ भी कर लेती है. भगवान सबको कम से कम एक बेटी अवश्य दें.
उनके ऊपर बढ़ते हुए खतरे भी नजरअंदाज नहीं किये जा सकते. उसका पहला उपाय तो उसे स्वयं अपने आप को सुरक्षित रखने लायक बनाना है.
अपके आलेख को पढने के बाद मै कुछ मिस कर रही हूं … मुझे इस बात का अफसोस हो रहा है कि मुझे बेटियां नहीं हैं।
waakayi aapne ek achchha lekh likha hai …badhayi
मैं भी चाहूगा कि जब कभी भी मेरी शादी हो और उसके बाद बच्चे हो तो पहले बेटी ही हो. उसके बाद हरि इक्छा …..
hum unhein dekh rahe hai jo janm le chuki hain… ajanmi betiyon ki cheekh tak shayad ham ab bhi pahuch nahi paye hain…
dear
this is a great effort to prevent god’s wonder ful creation.mother who is girl herself but hate most to girl child .when aleady sex ratio becom alarming man is cotinue to kill or protect the girl child.today i was watching T V see that mumbai cops were carring some people in the crim of bar dancing if sex ratio go down this things will more frequent more male will single .women haraasment will be there it might be every women .so maintian the balance girl should protected.today live in relations are adding in sociaty but tommorrow when one girl will live two or three fellows.things will much pathatic.so not only save the girl but also manage them socially is essentiality.
-satpal sain
betian jine ka arth samjhati hai…..beti ke bine jiwan sarthak nahee hota……Good prithvi
बदलाव की इस बयार को सलाम………
सच बहुत ही दुलारी होती हैं बेटियां…डूबकर लिखा भी है पृथ्वी भाई ने।
Ek gul…
Jo khila kisi shakh pe
Shakh shajr-e-Hayat ki.
Gardish-e-Dauran ke hawale ho gaya
Raah-e-Zeest men kho gaya.
Fasl-e-gul kitni ayee, chali gayee
Ik umr guzar gayee tujhko takte hue
Ik zamana guzar gaya terii talash men.
Ab gauhar-e-nayab se seenchta hun
Teri yadon ki fasl…
Ab to yad-e-Gul hi hay
Bas mera hasil-e-Shajr-Hayat
– Shahid Akhtar
यह किसी के लिए लिखा एक बाप की नज्म है।
आंकड़े क्या कभी उस बाप की कहानी कहेंगे कभी जो बीबी के चाहते हउवे भी जानबूझ कर उस बेटी को जन्म देने का फासला लेता है..आंकड़े क्या उस बाप की ये कहानी भी कहेगा की कहीं बेटे की चाहत में एक माँ अपनी बेटियों की उपेछा ना कर bate उसका ओप्रेसन करवाता हैं.. .आंकड़े क्या उस कहानी को कहते हैं की कसे एक गरीब बाप बेटी को लाख बढ़ने की चाहत रखते हउवे गावं और मोहल्ले के शाहबजादो के डर से नहीं पढ़ा सका…आंकड़े ही सब कुछ नहीं हैं एसी तमाम कहानियां है..जिनकी कहानी किसी आंकड़े में दर्ज नहीं है…लाख चाहत रखता हो कोई बेटियों की,मगर दहेज़ की चिंता में अगर कोई माँ बाप बेटी ना जन्म देने का फासला करता हो तो क्या उसकी कहानी आंकड़े कहते हैं..कभी नहीं…आंकड़े बस ये कहानी कहते हैं फ़ला वर्ष में इतनी लड़कियों की स्कूल छोडा,पढाई छोड़ी …. उनके जाहिल गावर परम्परावादी माँ बाप ने उनकी पढाई छुड़ा दी….इस बात का कोई आंकड़ा नहीं की बीमार बाप उस बेटी की फीस नहीं बार सका था…आंकड़ो का खेल आंकड़े बनाने वाले जाने हम सिर्फ इतना जानते हैं की ….
बदलाव हो रहा है…आज से दस साल पहले जो लोग आसानी से कह देते थे की बेटी को पढ़ा लिखा के क्या होगा,उन्हें बेलने ही तो चलाना है ना.. वों आज उतनी आसानी से नहीं कह पाते क्या क्या ये कम बदलाव है????????
ये बात सच है। ऐसा ही मैने भी महसूस किया और अपने नजदीकी लोगों में पिछले कुछ समय में लडकियां ही पैदा होती देखी हैं।
जिनके होती हैं बेटियां, सच बहुत ही भाग्यवान होते हैं वह। खूब लिखा है भाई पृथ्वी जी।
Why do women have to be better in many ways than men to enjoy equal rights in the society. They always have to show some special quality to be considered equal to men. Nothing will change until and unless they are financially independent and aware of their constitutional rights. And this will happen only through proper education.I have seen the level of discrimination in Rajasthan and Haryana and its disgusting.
यहां देश के सबसे बड़े अंग्रेजी अ$खबार के कार्यालय में अपनी सीट पर बैठकर लगता है कि क्या आज भी वास्तव में बेटियों की सामाजिक स्थिति या थोड़ा अटपटा न लगे तो कहें कि ‘प्रासंगिकताÓ स्थापित किए जाने की जरूरत है? जबकी मेरे ही चारों तरह मैं गिन या चुन नहीं सकता कि कौन किसकी बेटी है किसी भी धुरंधर बेटे से कम है। मैं मानता हूं कि यह कार्यालय पूरे समाज का प्रतिनिधत्व नहीं करता है न ही यहां के वैचारिक स्तर का कोई व्यक्ति बेटियों को किसी भी सूरत में कमतर मानता है। अब इसी व्यक्तव्य का दूसरा पक्ष जो मेरे गृहनगर हिसार (हरियाणा)से जुड़ा है जहां बदलती बयारों ने माहौल को बहुत हद तक तरोताजा किया है। पृथ्वी भाई ने जिस कादे कीचड़ का जिक्र किया, वह बदस्तूर यहां सड़ता नजर आ रहा है लेकिन मैं बड़े गर्व के साथ कह सकता हूं कि मेरे पूरे परिवार, समाज में बेटियों का जितना सम्मान है, उतना कहीं नहीं होगा। मेरे परिचित जानते हैं कि मेरे घर में एक बेटे की बहुत सख्त जरूरत थी लेकिन मुझे मेरी मां का हमारी वाचाल पड़ोसन से भीषण झगड़ा बहुत अच्छी तरह याद है। ये झगड़ा तब हुआ था जब उन पड़ोसन ने ‘मेरी दूसरी संतान बेटी न होÓ इसके लिए पहले जांच और फिर जरूरत पड़े तो गर्भपात की सलाह दे डाली थी। मेरी मां ने न सिर्फ उन्हें बुरी तरह लताड़ा बल्कि आज तक कभी उनसे बात नहीं की है। और आज मेरे घर में जब कोई नई बनियान भी खरीदता है तो पहनने से पहले मेरी पांच वर्ष की बेटी सलोनी के पैरों से स्पर्श कराता है। हमारे परिवार में ऐसी परंपरा है।
-रमन
god made only a virtue thing that is woman…..
woman acts many roll on this earth i.e. a sister,
a mother, a wife……………
think …….. NO WOMEN NO LIFE……………
“SAVE GIRL CHILD”
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main to chahata hoon logo ki mansikta badle aur betio ko bhi vahi huk mile jo beto ka h. bharun hatya ruke. phir ho her aangan me batiya hi batiya.
vinod
bhai sahab happy deepawali
Aapka aalekh padhane ke bad.me ekhi bat kahunga Ki me bhgyasali Hu.muje beti peda hui he.094287*****.kya muje is num pe watshup par ku6 paktiya aap sare kar sakte Ho.me mere dosto se sare karna chats Hu.aapka abhari rahunga.
शुक्रिया साब, कोशिश करता हूं.